सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि औद्योगिक और वित्तीय पुनर्निर्माण बोर्ड (BIFR) द्वारा रुग्ण औद्योगिक कंपनी (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1985 (SICA) के तहत पारित कोई भी प्रतिबंधात्मक आदेश, चेक अनादरण के लिए परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 (NI Act) की धारा 138 के तहत आपराधिक कार्यवाही पर स्वतः रोक नहीं लगाता है। न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा और न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयां की पीठ ने श्री नागानी सिल्क मिल्स प्राइवेट लिमिटेड द्वारा दायर अपीलों को स्वीकार करते हुए यह फैसला सुनाया। कोर्ट ने बॉम्बे हाईकोर्ट और एक निचली पुनरीक्षण अदालत के उन आदेशों को रद्द कर दिया, जिन्होंने एल.डी. इंडस्ट्रीज लिमिटेड और उसके निदेशकों को चेक बाउंस के मामले से आरोपमुक्त कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने आपराधिक शिकायतों को बहाल करते हुए मजिस्ट्रेट को मुकदमे की कार्यवाही आगे बढ़ाने का निर्देश दिया है।
मामले की पृष्ठभूमि
अपीलकर्ता, श्री नागानी सिल्क मिल्स प्राइवेट लिमिटेड ने प्रतिवादी कंपनी, एल.डी. इंडस्ट्रीज लिमिटेड और उसके निदेशकों के खिलाफ एन.आई. अधिनियम की धारा 138 और 141 के तहत सात अलग-अलग आपराधिक शिकायतें दर्ज की थीं। ये शिकायतें 2001 में जारी किए गए कई चेकों के अनादरण से संबंधित थीं, जिनकी कुल राशि ₹1.6 करोड़ से अधिक थी। चेक “अपर्याप्त धनराशि” के कारण बाउंस हो गए थे। ये चेक कथित तौर पर अपीलकर्ता द्वारा की गई आपूर्ति के भुगतान के लिए जारी किए गए थे।
मजिस्ट्रेट द्वारा समन जारी करने के बाद, आरोपी कंपनी ने प्रक्रिया को वापस लेने की मांग करते हुए एक आवेदन दायर किया। उन्होंने तर्क दिया कि कंपनी को BIFR द्वारा SICA के तहत ‘बीमार’ घोषित कर दिया गया था और उसकी संपत्ति के निपटान पर रोक लगाने वाला एक प्रतिबंधात्मक आदेश लागू था। उन्होंने दलील दी कि इस कानूनी बाधा के कारण वे मांग नोटिस का सम्मान करने में असमर्थ थे, जिससे धारा 138 की कार्यवाही अनुचित हो जाती है।

हालांकि मजिस्ट्रेट ने इस आवेदन को खारिज कर दिया, लेकिन अभियुक्तों ने इस आदेश को सत्र न्यायालय में एक पुनरीक्षण याचिका में सफलतापूर्वक चुनौती दी, जिसने उन्हें आरोपमुक्त कर दिया। इस आरोपमुक्ति के खिलाफ अपीलकर्ता की रिट याचिकाएं बॉम्बे हाईकोर्ट द्वारा खारिज कर दी गईं, जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट में वर्तमान अपीलें दायर की गईं।
पक्षकारों की दलीलें
अपीलकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष तर्क दिया कि अदालत प्रसाद बनाम रूपलाल जिंदल मामले में स्थापित कानून के अनुसार, एक मजिस्ट्रेट के पास समन आदेश को वापस लेने की कोई शक्ति नहीं है। यह भी तर्क दिया गया कि हाईकोर्ट ने मेसर्स कुसुम इंगोट्स एंड अलॉयज लिमिटेड बनाम मेसर्स पेन्नार पीटरसन सिक्योरिटीज लिमिटेड और अन्य मामले में निर्धारित कानून की गलत व्याख्या की, जिसमें स्पष्ट किया गया था कि SICA की धारा 22, एन.आई. अधिनियम के तहत आपराधिक कार्यवाही पर रोक नहीं लगाती है। अपीलकर्ता ने इस बात पर प्रकाश डाला कि इस मामले में 21.08.2000 का BIFR का प्रतिबंधात्मक आदेश पूर्ण नहीं था और कंपनी को “रोजमर्रा के कामकाज” के लिए वर्तमान संपत्ति का उपयोग करने की अनुमति देता था।
इसके विपरीत, प्रतिवादी-अभियुक्त ने हाईकोर्ट के फैसले का समर्थन करते हुए कहा कि चेक पोस्ट-डेटेड थे और कंपनी को ‘बीमार’ घोषित किए जाने तथा BIFR के प्रतिबंधात्मक आदेश के कारण शिकायत को सही ढंग से रद्द कर दिया गया था।
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण और निर्णय
सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने कानूनी प्रावधानों और मिसालों का विस्तृत विश्लेषण किया। कोर्ट ने कहा कि एन.आई. अधिनियम की धारा 118(बी) के तहत, यह एक कानूनी धारणा है कि एक चेक उसी तारीख को बनाया गया था जो उस पर अंकित है, और इस धारणा को केवल मुकदमे के दौरान सबूतों के माध्यम से ही खारिज किया जा सकता है।
कोर्ट ने विशिष्ट BIFR प्रतिबंधात्मक आदेश की जांच की, जिसमें कहा गया था: “कंपनी/प्रवर्तकों को अधिनियम की धारा 22-ए के तहत निर्देश दिया गया था कि वे BIFR की सहमति के बिना कंपनी की किसी भी अचल या वर्तमान संपत्ति का निपटान न करें। यदि कंपनी चल रही थी, तो रोजमर्रा के कामकाज के लिए आवश्यक सीमा तक वर्तमान संपत्ति निकाली जा सकती थी, जिसका उचित हिसाब रखा जाना चाहिए।”
पीठ ने पाया कि इस आदेश ने दैनिक कार्यों के लिए कंपनी की संपत्ति का उपयोग करने पर पूर्ण प्रतिबंध नहीं लगाया था। यह सवाल कि क्या अनादरित चेक ऐसे कार्यों के लिए जारी किए गए थे, मुकदमे के दौरान तय किया जाने वाला एक तथ्यात्मक प्रश्न था।
कोर्ट ने अपने पिछले फैसले कुसुम इंगोट्स (उपरोक्त) से बड़े पैमाने पर उद्धरण दिया, जिसमें यह दोहराया गया था कि “SICA की धारा 22 किसी कंपनी या उसके निदेशकों के खिलाफ एनआई अधिनियम की धारा 138 के तहत अपराध के आरोपों पर एक आपराधिक मामला चलाने और आगे बढ़ाने के लिए कोई कानूनी बाधा उत्पन्न नहीं करती है।”
पीठ ने निष्कर्ष निकाला कि मिसालों से निकलने वाली कानूनी स्थिति यह है कि एक ‘बीमार’ कंपनी के खिलाफ धारा 138 के तहत शिकायत दर्ज करने पर कोई रोक नहीं है, और BIFR प्रतिबंधात्मक आदेश के प्रभाव पर विशिष्ट तथ्यों और आदेश की प्रकृति के आधार पर विचार किया जाना चाहिए, आमतौर पर सबूत पेश किए जाने के बाद।
फैसले में कहा गया है, “वर्तमान मामले में, SICA की धारा 22A के तहत प्रतिबंधात्मक आदेश ने अभियुक्त-कंपनी को अपने रोजमर्रा के कार्यों को पूरा करने के लिए अपनी संपत्ति से आहरण करने से नहीं रोका… ऐसी परिस्थितियों में, पुनरीक्षण अदालत ने कार्यवाही की शुरुआत में ही प्रक्रियाओं को वापस लेकर और अभियुक्तों को आरोपमुक्त करके गलती की और हाईकोर्ट ने उस गलती को ठीक न करके त्रुटि की।”
इसके अलावा, कोर्ट ने माना कि समन वापस लेने के लिए मजिस्ट्रेट के पास प्रारंभिक आवेदन ही मूल रूप से त्रुटिपूर्ण था।
इन्हीं कारणों से, सुप्रीम कोर्ट ने अपीलों को स्वीकार कर लिया, हाईकोर्ट और पुनरीक्षण अदालत के आदेशों को रद्द कर दिया, और आपराधिक शिकायतों को कानून के अनुसार तय करने के लिए संबंधित मजिस्ट्रेट के पास बहाल कर दिया।