ट्रायल कोर्ट ने प्रतिवादी की स्वीकारोक्ति और संयुक्त कब्जे के सिद्धांतों की अनदेखी की; आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट ने विभाजन वाद खारिज करने का फैसला पलटा

आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट ने संपत्ति विभाजन के एक मुकदमे को खारिज करने के निचली अदालत (ट्रायल कोर्ट) के फैसले को रद्द कर दिया है। न्यायमूर्ति रवि नाथ तिलहरी और न्यायमूर्ति महेश्वर राव कुंचम की खंडपीठ ने मामले को पुनर्विचार के लिए वापस भेजते हुए (Remand) स्पष्ट किया कि निचली अदालत संयुक्त हिंदू परिवार की संपत्ति के संबंध में प्रतिवादियों द्वारा की गई स्वीकारोक्ति (Admissions) और ‘संयुक्त कब्जे’ (Joint Possession) के मौलिक कानूनी सिद्धांतों को सही तरीके से लागू करने में विफल रही।

मामले की पृष्ठभूमि

यह मामला वादी, अय्यलासोमयाजुला भवानी शंकर शास्त्री द्वारा दायर एक विभाजन वाद (O.S. संख्या 94/2010) से संबंधित है। वादी ने दावा किया कि वह और प्रतिवादी एक संयुक्त परिवार के सदस्य हैं और विवादित संपत्तियां संयुक्त परिवार के फंड या व्यवसाय से अर्जित की गई थीं, इसलिए उनका विभाजन होना चाहिए।

प्रतिवादी संख्या 2 (वादी के भाई) ने मुकदमे का विरोध करते हुए तर्क दिया कि वादी को एक अन्य परिवार में गोद (Adoption) दे दिया गया था, इसलिए उसका अपने प्राकृतिक पिता की संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं है। इसके अलावा, यह भी कहा गया कि संपत्तियां संयुक्त परिवार की संपत्ति नहीं थीं।

अनाकापल्ले स्थित दसवें अतिरिक्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश ने 22 नवंबर, 2017 को मुकदमा खारिज कर दिया था। हालांकि ट्रायल कोर्ट ने गोद लेने की दलील को अस्वीकार करते हुए वादी को मृतक पिता का पुत्र माना, लेकिन यह निर्णय दिया कि वादी यह साबित करने में विफल रहा कि संपत्तियां संयुक्त परिवार की हैं और वह संयुक्त कब्जे में है। इसके अतिरिक्त, वादी द्वारा दायर संशोधन याचिकाओं (Amendment Applications) को भी खारिज कर दिया गया था।

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दलीलें

अपीलकर्ता (वादी) की ओर से तर्क दिया गया कि ट्रायल कोर्ट ने महत्वपूर्ण सबूतों की अनदेखी की है, विशेष रूप से प्रतिवादी संख्या 2 (DW 1) की स्वीकारोक्ति। अपीलकर्ता के वकील ने बताया कि प्रतिवादी ने एक पिछली कानूनी कार्यवाही (Ex. A9) और जिरह (Cross-examination) के दौरान यह स्वीकार किया था कि संपत्तियां संयुक्त परिवार की थीं और वह उनका प्रबंधन कर रहा था। अपीलकर्ता ने यह भी तर्क दिया कि केवल पेशे से डॉक्टर होने और मसूरी में रहने के कारण उन्हें संयुक्त कब्जे से बाहर मानना ट्रायल कोर्ट की त्रुटि थी।

दूसरी ओर, प्रतिवादियों ने तर्क दिया कि यह साबित करने का भार (Burden of Proof) वादी पर है कि संपत्तियां संयुक्त परिवार की संपत्ति हैं या उनके अधिग्रहण के लिए कोई संयुक्त पारिवारिक आधार (Nucleus) मौजूद था। उन्होंने कहा कि लिखित बयान में की गई स्वीकारोक्ति केवल एक साक्ष्य का टुकड़ा है, न कि निर्णायक सबूत।

हाईकोर्ट का विश्लेषण

हाईकोर्ट ने पाया कि ट्रायल कोर्ट रिकॉर्ड पर मौजूद संपूर्ण साक्ष्यों पर विचार करने और उनकी सराहना करने में “बुरी तरह विफल” रहा है।

संयुक्त परिवार की संपत्ति पर स्वीकारोक्ति (Admissions) कोर्ट ने टिप्पणी की कि भले ही स्वीकारोक्ति निर्णायक सबूत न हो, लेकिन यह साक्ष्य का सबसे अच्छा हिस्सा है और इसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। पीठ ने देखा कि ट्रायल कोर्ट ने प्रतिवादी संख्या 2 द्वारा अपने पिछले लिखित बयान (Ex. A9) और बयानों में संपत्तियों को संयुक्त परिवार के फंड से खरीदने की बात स्वीकार करने को उचित महत्व नहीं दिया।

सुप्रीम कोर्ट के फैसले भागवत शरण बनाम पुरुषोत्तम (2020) का हवाला देते हुए, कोर्ट ने कहा कि हालांकि एक स्वीकारोक्ति निर्णायक नहीं होती, लेकिन “यह नहीं कहा जा सकता कि इसे कोई वजन नहीं दिया जाना चाहिए और इस पर विचार नहीं किया जाना चाहिए।”

संयुक्त कब्जा (Joint Possession) हाईकोर्ट ने कब्जे पर ट्रायल कोर्ट के निष्कर्ष को कानूनी रूप से अस्थिर पाया। ट्रायल कोर्ट ने वादी के खिलाफ फैसला इसलिए सुनाया था क्योंकि वह अनाकापल्ले के बजाय मसूरी में रहते थे। अन्नासाहेब बापूसाहेब पाटिल बनाम बलवंत (1995) और नीलावती बनाम एन. नटराजन (1980) के मामलों में सुप्रीम कोर्ट के फैसलों का उल्लेख करते हुए, पीठ ने दोहराया कि “एक सह-स्वामी का कब्जा, सभी का कब्जा होता है।”

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कोर्ट ने कहा: “तथ्य यह है कि सह-ह हिस्सेदारों में से एक संयुक्त कब्जे में नहीं है, इसका मतलब यह नहीं है कि उसे बेदखल कर दिया गया है… इसलिए, संयुक्त कब्जे और कोर्ट फीस के मुद्दों पर निष्कर्ष भी अस्थिर हैं।”

याचिकाओं में संशोधन (Amendment of Pleadings) हाईकोर्ट ने माना कि ट्रायल कोर्ट ने वादी की संशोधन याचिकाओं (I.A. संख्या 492/2014 और 986/2017) को खारिज कर अवैधता की है। ट्रायल कोर्ट ने संशोधन के चरण पर ही स्वामित्व को लेकर “मिनी ट्रायल” (Mini Trial) आयोजित कर संपत्तियों को जोड़ने की अनुमति देने से इनकार कर दिया था।

राजेश कुमार अग्रवाल बनाम के. के. मोदी (2006) और आंध्रा बैंक बनाम एबीएन एमरो बैंक एन. वी. (2007) का हवाला देते हुए कोर्ट ने कहा: “याचिकाओं में संशोधन की अनुमति देते समय, कोर्ट संशोधन के गुण-दोष (Merits) के सवाल में नहीं जा सकता।”

कोर्ट ने आगे स्पष्ट किया कि सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC) के आदेश VI नियम 17 का प्रोविजो (Proviso) ट्रायल शुरू होने के बाद संशोधन पर पूर्ण प्रतिबंध नहीं लगाता है, यदि “उचित तत्परता” (Due Diligence) दिखाई गई हो (जे. सैमुअल बनाम गट्टू महेश, 2012)।

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फैसला

हाईकोर्ट ने अपील (A.S. No. 80 of 2018) को स्वीकार करते हुए 22 नवंबर, 2017 के निर्णय और डिक्री को रद्द कर दिया (सिवाय इश्यू नंबर 1 के निष्कर्ष के, जो वादी के पक्ष में था)।

कोर्ट ने संशोधन याचिकाओं (C.R.P. Nos. 3813 और 5818 of 2017) को भी स्वीकार किया और उन्हें खारिज करने वाले आदेशों को रद्द कर दिया। C.R.P. No. 5836 of 2017 को निष्प्रभावी (Infructuous) मानते हुए खारिज कर दिया गया।

मामले को नए सिरे से फैसले के लिए ट्रायल कोर्ट को वापस (Remand) भेज दिया गया है, साथ ही निर्देश दिया गया है कि वह पूरे साक्ष्यों पर विचार करे और सही कानूनी सिद्धांतों को लागू करते हुए एक वर्ष के भीतर निर्णय ले।

कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि “रिकॉर्ड पर मौजूद साक्ष्य, जिसमें प्रतिवादी संख्या 2 की स्वीकारोक्ति भी शामिल है… की अनदेखी की गई… जिसके परिणामस्वरूप दर्ज निष्कर्ष कानून के अनुसार नहीं हैं।”

केस विवरण:

  • केस टाइटल: अय्यलासोमयाजुला भवानी शंकर शास्त्री बनाम श्रीमती अय्यलासोमयाजुला लक्ष्मी नरसम्मा (मृत) और अन्य
  • केस संख्या: ए.एस. संख्या 80 ऑफ 2018 और सी.आर.पी. संख्या 3813, 5818 एवं 5836 ऑफ 2017
  • कोरम: न्यायमूर्ति रवि नाथ तिलहरी और न्यायमूर्ति महेश्वर राव कुंचम
  • अपीलकर्ता के वकील: श्री सुनील एच. गानू, वरिष्ठ अधिवक्ता (सहायता: एम. चलपति राव)
  • प्रतिवादी के वकील: श्री वी. आर. एन. प्रशांत

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