न्यायमूर्ति सौरभ लवानिया द्वारा दिए गए फैसले के तहत इलाहाबाद हाईकोर्ट ने विशाल त्रिपाठी से जुड़े एक मारपीट के मामले में दोबारा जांच या आगे की जांच की मांग करने वाली याचिका को खारिज कर दिया है। आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 482 के तहत दायर मामले की संख्या 6104/2024 है।
मामले की पृष्ठभूमि
मामला 24 जुलाई, 2023 को प्रमोद तिवारी द्वारा विशाल त्रिपाठी और अन्य, जिनमें देवेंद्र त्रिपाठी, रुद्र त्रिपाठी, आराधना त्रिपाठी और सुशीला शामिल हैं, के खिलाफ दर्ज कराई गई एफआईआर (संख्या 0228/2023) से शुरू हुआ। भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 147, 323, 325, 427, 452 सहित विभिन्न धाराओं के तहत दर्ज की गई एफआईआर में आरोप लगाया गया है कि आरोपियों ने प्रमोद तिवारी और उनके परिवार के सदस्यों पर हमला किया, जिसके परिणामस्वरूप उन्हें चोटें आईं। माना जाता है कि यह घटना 23 जुलाई, 2023 की रात लगभग 10:00 बजे हुई थी।
शामिल कानूनी मुद्दे
इस मामले में प्राथमिक कानूनी मुद्दा यह था कि क्या न्यायालय को जांच अधिकारी (आई.ओ.) द्वारा आरोप पत्र दाखिल किए जाने के बाद धारा 173(8) सीआरपीसी के तहत पुनः जांच या आगे की जांच का आदेश देना चाहिए। आवेदक विशाल त्रिपाठी ने तर्क दिया कि घटना की तारीखों और समय में विसंगतियों, जैसा कि मुखबिर और गवाहों द्वारा बताया गया है, के कारण पुनः जांच की आवश्यकता है। श्री दिनेश कुमार मिश्रा के नेतृत्व में बचाव पक्ष के वकील ने अपने दावे का समर्थन करने के लिए विनुभाई हरिभाई मालवीय और अन्य बनाम गुजरात राज्य में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का हवाला दिया कि मजिस्ट्रेट के पास आरोप पत्र प्रस्तुत किए जाने के बाद भी आगे की जांच का आदेश देने का अधिकार है।
न्यायालय का निर्णय
अदालत ने दलीलों पर विचार करने और मामले के दस्तावेजों की समीक्षा करने के बाद, पुनः जांच के लिए आवेदन को खारिज करने के ट्रायल कोर्ट के फैसले को बरकरार रखा। न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि किसी अभियुक्त को जांच के चरण में पुनः जांच या आगे की जांच की मांग करने का अधिकार नहीं है। न्यायालय ने यूनियन ऑफ इंडिया बनाम डब्ल्यू.एन. चड्ढा और रोमिला थापर बनाम यूनियन ऑफ इंडिया सहित कई उदाहरणों का हवाला देते हुए कहा कि अभियुक्त जांच प्रक्रिया में हस्तक्षेप नहीं कर सकता।
मुख्य अवलोकन
न्यायमूर्ति लावणिया ने अपने फैसले में कई महत्वपूर्ण अवलोकन किए:
1. जांच के दौरान अभियुक्त के अधिकार: न्यायालय ने यूनियन ऑफ इंडिया बनाम डब्ल्यू.एन. चड्ढा का संदर्भ देते हुए कहा, “अभियुक्त को जांच के तरीके और विधि के संबंध में कोई भी कहने का अधिकार नहीं है।”
2. आगे की जांच: न्यायालय ने स्पष्ट किया, “धारा 173(8) सीआरपीसी के अर्थ में आगे की जांच अतिरिक्त; अधिक; या पूरक है। यह पहले की जांच की निरंतरता है और शुरू से शुरू की जाने वाली नई जांच या पुनः जांच नहीं है।”
3. न्यायिक मिसालें: फैसले में सुप्रीम कोर्ट के फैसलों का विस्तृत हवाला दिया गया है, जिसमें इस बात पर जोर दिया गया है कि आगे की जांच का आदेश देने की शक्ति मजिस्ट्रेट के विवेक पर निर्भर करती है और यह आरोपी का अंतर्निहित अधिकार नहीं है।
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वकील और संबंधित पक्ष
– आवेदक: विशाल त्रिपाठी
– विपक्षी पक्ष: उत्तर प्रदेश राज्य, प्रमुख सचिव, गृह विभाग, लखनऊ
– आवेदक के वकील: दिनेश कुमार मिश्रा, रिपु दमन शाही, उपेंद्र कुमार सिंह
– विपक्षी पक्ष के वकील: जी.ए., राकेश द्विवेदी