इलाहाबाद हाईकोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा है कि अलीगढ़ स्थित जामिया उर्दू संस्थान बिना नियमित कक्षाएं संचालित किए डिग्रियां बांट रहा है, जो अवैध है। इसी आधार पर कोर्ट ने इस संस्थान से अदीब-ए-कामिल और मुअल्लिम-ए-उर्दू जैसी डिग्रियां प्राप्त करने वाले अभ्यर्थियों को प्राथमिक विद्यालयों में उर्दू सहायक शिक्षक पद पर नियुक्ति का कोई अधिकार नहीं दिया।
न्यायमूर्ति सौरभ श्याम शमशेरी ने अज़हर अली व अन्य की याचिका को खारिज करते हुए कहा, “याची ने 1995 में इंटरमीडिएट परीक्षा उत्तीर्ण की और उसी वर्ष जुलाई में जामिया उर्दू में अदीब-ए-कामिल पाठ्यक्रम में दाखिला लिया। केवल पांच महीनों के भीतर नवंबर 1995 में परीक्षा दे दी और जुलाई 1996 में परिणाम घोषित हो गया। फरवरी 1997 में मुअल्लिम-ए-उर्दू की डिग्री भी प्राप्त कर ली गई। यह पूरा शैक्षणिक क्रम संदेहास्पद है।”
याचियों ने दावा किया था कि उन्होंने जामिया उर्दू से अदीब-ए-कामिल की डिग्री प्राप्त की है, यूपी टीईटी 2013 भी पास किया और उनकी मेरिट सूची में चयन हुआ था। कुछ को नियुक्ति पत्र भी मिल गए थे, जबकि कुछ प्रतीक्षा सूची में थे।

हालांकि, एक जांच में सामने आया कि कुछ याचियों ने एक वर्ष की अवधि वाले पाठ्यक्रम को बहुत कम समय में पूरा कर लिया, और कुछ ने इंटरमीडिएट परीक्षा के साथ ही अदीब-ए-कामिल की डिग्री भी ले ली। इसके चलते जिनकी नियुक्ति हुई थी, उसे निरस्त कर दिया गया।
याचियों ने दलील दी कि जामिया उर्दू एक मान्यता प्राप्त अल्पसंख्यक संस्थान है और ऐसी अटकलें कि वहां शिक्षक या कक्षाएं नहीं थीं, आधारहीन हैं। उन्होंने 2018 के सरताज अहमद बनाम उत्तर प्रदेश राज्य मामले का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि 11 अगस्त 1997 से पहले जामिया उर्दू से मुअल्लिम-ए-उर्दू की डिग्री लेने वाले नियुक्ति के पात्र माने जाएंगे।
राज्य सरकार की ओर से कहा गया कि जामिया उर्दू को यूजीसी से मान्यता प्राप्त नहीं है, वहां नियमित कक्षाएं नहीं होतीं और डिग्रियां धोखाधड़ी से बांटी जा रही हैं।
कोर्ट ने अपने 17 मई के फैसले में कहा, “याचियों ने निर्धारित अवधि से बहुत कम समय में दो परीक्षाएं पास कीं, जो नियमों के विरुद्ध है। यह स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि संस्थान अवैध रूप से डिग्रियां वितरित कर रहा है। अतः याची सहायक उर्दू शिक्षक पद के लिए अयोग्य हैं।”