इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सामूहिक बलात्कार, आपराधिक धमकी और बाल संरक्षण तथा आईटी कानूनों के उल्लंघन के गंभीर आरोपों से जुड़े एक मामले में आरोपी को जमानत देने से इनकार कर दिया है। न्यायालय ने हल्काई अहिरवार की जमानत याचिका पर फैसला सुनाते हुए अपराध की गंभीरता और सामाजिक विश्वास पर पड़ने वाले इसके प्रभाव पर जोर दिया। आपराधिक विविध जमानत आवेदन संख्या 32226/2024।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला 20 अप्रैल, 2024 को उत्तर प्रदेश के ललितपुर जिले में हुई एक घटना से संबंधित है। पीड़िता, एक 14 वर्षीय लड़की ने आरोप लगाया कि आवेदक और तीन अन्य लोगों ने उसे बहकाया और उसके बाद उसके साथ मारपीट की। कथित तौर पर आरोपियों ने मारपीट की घटना को रिकॉर्ड किया और पीड़िता को घटना का खुलासा करने पर जान से मारने की धमकी दी।
यह मामला भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 376डीए (सामूहिक बलात्कार), 506 (आपराधिक धमकी), यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण (POCSO) अधिनियम की धारा 5जी/6 और सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 की धारा 67बी के तहत दर्ज किया गया था।
हलके अहिरवार द्वारा दायर जमानत के लिए आवेदन न्यायमूर्ति शेखर कुमार यादव के समक्ष आया।
न्यायालय द्वारा विचार किए गए कानूनी मुद्दे
अदालत के फैसले में कई महत्वपूर्ण कानूनी मुद्दों को संबोधित किया गया:
1. आरोपों की गंभीरता: अदालत ने पाया कि अपराध न केवल एक गंभीर शारीरिक हमला था, बल्कि पीड़ित को चुप कराने के इरादे से मनोवैज्ञानिक दबाव का एक जानबूझकर किया गया कार्य भी था।
2. सामाजिक प्रभाव: न्यायमूर्ति यादव ने कहा कि इस तरह के अपराध न्याय प्रणाली में जनता के विश्वास को गंभीर रूप से कमजोर करते हैं।
3. जमानत मानदंड: जमानत के लिए तर्कों के विरुद्ध अपराध की गंभीरता को तौलते हुए, न्यायालय ने अभियुक्तों के रिहा होने पर पीड़ित और समाज के लिए संभावित जोखिम पर ध्यान केंद्रित किया।
प्रस्तुत तर्क
– आवेदक के लिए: आवेदक के वकील, मोहम्मद शकील और शम्स तबरेज़ अली ने तर्क दिया कि आरोप अतिरंजित और मनगढ़ंत हैं, जो उनके मुवक्किल के खिलाफ पिछले आपराधिक रिकॉर्ड की अनुपस्थिति को उजागर करते हैं। उन्होंने एफआईआर दाखिल करने की समयसीमा में विसंगतियों की ओर भी इशारा किया और दावा किया कि आवेदक को अपराध से जोड़ने वाला कोई ठोस सबूत पेश नहीं किया गया।
– राज्य के लिए: जमानत का विरोध करते हुए, बबीता उपाध्याय और सरकारी वकील ने पीड़िता की गवाही और जांच के दौरान एकत्र किए गए पुष्टिकारक साक्ष्य पर प्रकाश डाला। उन्होंने अपराध की हिंसक प्रकृति, पीड़िता की भेद्यता और अभियुक्तों को रिहा करने के सामाजिक नतीजों पर जोर दिया।
न्यायालय द्वारा की गई टिप्पणियाँ
न्यायमूर्ति यादव ने कड़े शब्दों में टिप्पणी करते हुए कहा, “ऐसे मामलों में जमानत देने से कानूनी व्यवस्था में लोगों का भरोसा कम होगा और जघन्य अपराध करने वालों का हौसला बढ़ेगा।” उन्होंने आगे कहा कि पीड़ित की उम्र और प्रस्तुत साक्ष्य अपराध की गंभीरता को पुष्ट करते हैं, जिससे जमानत देना अनुचित है।
न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि प्रारंभिक जांच में दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 161 और 164 के तहत गवाही सहित पर्याप्त सबूत सामने आए हैं, जो जमानत देने से इनकार करने को उचित ठहराते हैं।
मामले का विवरण
– मामला संख्या: आपराधिक विविध जमानत आवेदन संख्या 32226/2024
– पीठ: न्यायमूर्ति शेखर कुमार यादव
– आवेदक के वकील: मोहम्मद शकील, शम्स तबरेज़ अली
– विपक्षी वकील: बबीता उपाध्याय, सरकारी वकील