सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में हाईकोर्ट के उस फैसले को रद्द कर दिया है, जिसके तहत ट्रायल कोर्ट के आदेश को पलटते हुए स्थाई निषेधाज्ञा (Permanent Injunction) के वाद को स्वीकार कर लिया गया था। शीर्ष अदालत ने स्पष्ट किया कि जब वादी अपना मालिकाना हक (Title) साबित करने में विफल रहते हैं और वाद में वर्णित संपत्ति की पहचान स्पष्ट नहीं होती है, तो उन्हें निषेधाज्ञा की राहत नहीं दी जा सकती।
न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह और न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन की पीठ ने यह फैसला सुनाते हुए ट्रायल कोर्ट के उस आदेश को बहाल कर दिया, जिसमें वादियों (मूल प्रतिवादियों) के दावे को खारिज कर दिया गया था।
मामले की पृष्ठभूमि
यह विवाद प्रतिवादियों (पवन कुमार भिहानी और अन्य) द्वारा दायर एक स्थाई निषेधाज्ञा के मुकदमे से संबंधित है, जिसमें उन्होंने अपीलकर्ताओं (ओबलप्पा और अन्य) को अपनी संपत्ति में हस्तक्षेप करने से रोकने की मांग की थी।
वादियों का दावा था कि उनके पिता को बंगलौर विकास प्राधिकरण (BDA) द्वारा ‘साइट नंबर 66’ आवंटित की गई थी। इसके लिए उन्होंने 1993 के एक बिक्री समझौते (Sale Agreement) और 2003 के एक बिक्री विलेख (Sale Deed) का हवाला दिया। शुरुआत में, संपत्ति को केम्पापुरा अग्रहारा गांव के सर्वे नंबर 349/1 और 350/12 में स्थित बताया गया था।
हालाँकि, सर्वे नंबर 349/1 और 350/12 में स्थित भूमि का अधिग्रहण, जो मूल रूप से अपीलकर्ताओं के परिवार की थी, को बाद में हाईकोर्ट द्वारा रद्द कर दिया गया था। इसके बाद, जब यह मुकदमा लंबित था, BDA ने 3 अगस्त 2012 को एक सुधार विलेख (Rectification Deed) निष्पादित किया। इसमें यह आरोप लगाया गया कि मूल दस्तावेजों में गलती थी और सर्वे नंबरों को बदलकर 350/9, 350/10 और 350/11 कर दिया गया।
ट्रायल कोर्ट ने यह कहते हुए वाद खारिज कर दिया था कि वादी अपना स्वामित्व स्थापित नहीं कर सके और दस्तावेजों के आधार पर संपत्ति की पहचान संभव नहीं थी। लेकिन प्रथम अपील में हाईकोर्ट ने BDA के कथित सर्वेक्षण पर भरोसा करते हुए ट्रायल कोर्ट के फैसले को पलट दिया था।
पक्षों की दलीलें
अपीलकर्ताओं की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता शैलेश मडियाल ने तर्क दिया कि सर्वे नंबर 349/1 और 350/12 की संपत्ति उनके मुवक्किलों के परिवार की थी। यद्यपि BDA ने इसका अधिग्रहण किया था, लेकिन कब्जा कभी नहीं लिया गया और अंततः अधिग्रहण को ही हाईकोर्ट ने रद्द कर दिया था।
श्री मडियाल ने जोर देकर कहा कि “बिक्री समझौते के दो दशक बाद किया गया सुधार विलेख स्वीकार्य नहीं हो सकता।” उन्होंने यह भी दलील दी कि हाईकोर्ट ने BDA के जिस कथित सर्वेक्षण पर भरोसा किया, वह न तो ट्रायल कोर्ट में साबित किया गया था और न ही उस पर कोई आधिकारिक मुहर थी।
दूसरी ओर, प्रतिवादियों के वकील एम.एन. उमाशंकर ने तर्क दिया कि उनके पिता ने नीलामी में BDA से संपत्ति खरीदी थी और 1993 में ही उन्हें कब्जा मिल गया था। उन्होंने कहा कि हाईकोर्ट ने BDA के सर्वेक्षण पर सही भरोसा किया है, जिसमें संशोधित सर्वे नंबरों में साइट नंबर 66 की पहचान की गई थी।
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण और टिप्पणियां
सुप्रीम कोर्ट ने रिकॉर्ड की जांच करने पर पाया कि सर्वे नंबर 349/1 और 350/12 के संबंध में अधिग्रहण की कार्यवाही वास्तव में रद्द कर दी गई थी। कोर्ट ने नोट किया कि 30.07.1977 की प्रारंभिक अधिसूचना और 10.05.1978 की अंतिम अधिसूचना को निरस्त घोषित कर दिया गया था।
सुधार विलेख और संपत्ति की पहचान पर
पीठ ने संपत्ति की पहचान को लेकर गंभीर विसंगतियां पाईं। कोर्ट ने देखा कि सुधार विलेख के जरिए सर्वे नंबरों को दो दशक बाद बदला गया था।
न्यायमूर्ति विनोद चंद्रन ने फैसले में लिखा:
“जहां तक सुधार विलेख (Rectification Deed) का संबंध है, जैसा कि ट्रायल कोर्ट ने देखा, दो दशक बाद सर्वे नंबरों में बदलाव, विशेष रूप से बिना कोई वैध कारण बताए और वह भी तब जब सर्वे नंबर 349 और 352 में अधिग्रहण की कार्यवाही रद्द हो चुकी थी, विश्वास नहीं जगाता है और न ही इसे एक वैध सुधार माना जा सकता है।”
कोर्ट ने यह भी पाया कि ट्रायल कोर्ट के अनुसार, नए सर्वे नंबरों (350/9, 350/10 और 350/11) वाली संपत्तियां तीसरे पक्षों के नाम पर थीं, जिन्हें मुकदमे में पक्षकार भी नहीं बनाया गया था।
हाईकोर्ट द्वारा BDA सर्वेक्षण पर भरोसे को लेकर
सुप्रीम कोर्ट ने BDA के सर्वेक्षण पत्र (प्रदर्श P-24) पर भरोसा करने के लिए हाईकोर्ट की आलोचना की। पीठ ने बताया कि उक्त दस्तावेज पर न तो कोई मुहर थी और न ही कोई स्पष्ट हस्ताक्षर।
“हमारी राय में, हाईकोर्ट ने BDA द्वारा किए गए कथित सर्वेक्षण पर भरोसा करके गंभीर त्रुटि की है। प्रस्तुत पत्र इस हद तक मौन है कि यह किसी भी स्पष्ट सीमा या माप (Metes and Bounds) का उल्लेख नहीं करता है। इसके अलावा, उक्त सर्वेक्षण, यदि किया भी गया था, तो वह अपीलकर्ताओं की पीठ पीछे किया गया था, जिस पर हाईकोर्ट द्वारा भरोसा नहीं किया जा सकता था।”
बिक्री समझौते की शर्तों का उल्लंघन
कोर्ट ने इस तथ्य पर भी गौर किया कि 1993 के मूल बिक्री समझौते में दो साल के भीतर आवासीय घर के निर्माण की शर्त थी। कोर्ट ने कहा, “यह स्वीकार्य तथ्य है कि 1993 में आवंटित संपत्ति पर किसी भी आवासीय भवन का निर्माण नहीं किया गया था… यहां तक कि जब 2012 में मुकदमा दायर किया गया, तब भी वहां कोई ऐसा भवन मौजूद नहीं था।”
फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि प्रतिवादी (वादी) अपीलकर्ताओं से मूल रूप से अधिग्रहित संपत्ति पर किसी भी अधिकार का दावा नहीं कर सकते, क्योंकि वह अधिग्रहण रद्द हो चुका था। संशोधित संपत्ति के संबंध में कोर्ट ने कहा:
“सुधार विलेख में दिखाए गए सर्वे नंबरों में संपत्तियों की पहचान नहीं होने के कारण, कोई निषेधाज्ञा नहीं दी जा सकती। वादी ने न तो स्वामित्व साबित किया है, और न ही सर्वे नंबरों के आधार पर साइट नंबर 66 की जमीनी स्तर पर उचित पहचान की गई है।”
परिणामस्वरूप, कोर्ट ने अपील स्वीकार कर ली, हाईकोर्ट के फैसले को रद्द कर दिया और वाद को खारिज करने वाले ट्रायल कोर्ट के आदेश को बहाल कर दिया।
केस डीटेल्स:
- केस टाइटल: ओबलप्पा और अन्य बनाम पवन कुमार भिहानी और अन्य
- केस नंबर: सिविल अपील नंबर _____ / 2025 (@ SLP (C) No. 14966 of 2025)
- साइटेशन: 2025 INSC 1450
- कोरम: न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह और न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन

