लॉ ट्रेंड के पहले के लेख में, इस सवाल पर कि क्या किसी न्यायाधीश को गिरफ्तार किया जा सकता है, विस्तार से समझाया गया था, जिसे पढ़ने के लिए यहां पर क्लिक करें।
इस लेख में इस सवाल पर चर्चा की जाएगी कि क्या किसी जज के खिलाफ एफआईआर दर्ज की जा सकती है।
परिचय:
भारत में संविधान सर्वोच्च है और यहाँ न्यायपालिका है को संविधान का संरक्षक माना जाता है। न्यायपालिका कानून के शासन को बनाए रखती है और संविधान में दिए गए नागरिकों के अधिकारों और स्वतंत्रता को भी सुनिश्चित और संरक्षित करती है। इस प्रकार न्यायपालिका पर कानून के शासन को बनाए रखने की विशाल जिम्मेदारी निहित है।
स्वतंत्र न्यायपालिका का महत्व: न्यायपालिका की स्वतंत्रता
यह सुनिश्चित करने के लिए एक बहुत ही महत्वपूर्ण पहलू है कि अदालतों द्वारा दिया गया न्याय किसी भी तरह के पूर्वाग्रह से मुक्त है। न्यायपालिका की स्वतंत्रता को अक्षुण्ण रखने के लिए न्यायाधीश (संरक्षण) अधिनियम 1985 की धारा 3 में प्रावधान है कि सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों और पूर्व न्यायाधीशों को किसी भी कार्य, वस्तु या उनके न्यायिक कर्तव्य या कार्य के दौरान किया या बोले गए शब्द के लिए कोई कार्यवाही नहीं की जा सकती है
भारतीय दंड संहिता की धारा 77 भी न्यायाधीशों को यदि वे अपने न्यायिक कर्तव्यों के दौरान कोई कार्य करते हैं या कुछ कहते हैं तो आपराधिक कार्यवाही से छूट देती है ।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि न्यायाधीशों को कानूनी कार्यवाही से पर्याप्त छूट दी गई है।
हालाँकि क्या होगा यदि कोई न्यायाधीश अपनी शक्तियों का दुरुपयोग करता है या स्वयं एक आपराधिक कार्य करता है?
ऐसे मामलों में न्यायाधीश के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की जा सकती है और उसे गिरफ्तार भी किया जा सकता है। राज्य के कार्यों में उनकी प्रतिष्ठा और महत्व को ध्यान में रखते हुए एक न्यायाधीश के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही करने के लिए विशेष दिशानिर्देश हैं।
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एक न्यायाधीश के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करने के लिए दिशानिर्देश:
एक न्यायाधीश के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करने के दिशानिर्देश केके वीरास्वामी मामले में सर्वोच्च न्यायालय की पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ द्वारा दिए गए बहुमत के फैसले में पाए जाते हैं । सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि उच्च न्यायालय के न्यायाधीश, उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश या उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के खिलाफ आपराधिक प्रक्रिया संहिता (एफआईआर) की धारा 154 के तहत कोई आपराधिक मामला तब तक दर्ज नहीं किया जाएगा जब तक कि सरकार पहले भारत के मुख्य न्यायाधीश से “परामर्श” न कर ले । इसका औचित्य यह था कि CJI की सहमति अनिवार्य थी क्योंकि वह न्यायाधीशों की नियुक्ति में “सहभागी पदाधिकारी” थे।
यह माना गया कि एक न्यायाधीश के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही तभी शुरू की जा सकती है जब सीजेआई ये कहे कि न्यायाधीश के खिलाफ आरोप उचित सबूत पर आधारित हैं।
सरकार द्वारा किसी न्यायाधीश के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही न्यायाधीश (संरक्षण) अधिनियम, 1985 की धारा 3 की उप-धारा (2) के, तभी शुरू कर सकती है जब वह इस बात का सबूत पेश कर सकती है कि न्यायाधीश द्वारा पारित निर्णय रिश्वत लेने के बाद पारित किया गया था।
क्या होगा यदि CJI अवैध कृत्यों में शामिल है?
एक प्रसिद्ध मामले में उड़ीसा उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश आईएम कुद्दुसी को अपनी शक्तियों का कथित रूप से दुरुपयोग करने के आरोप में सीबीआई द्वारा गिरफ्तार किए गया, सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कहा गया कि यदि भारत के मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ आरोप हैं, तो निर्णय राष्ट्रपति से सलाह मश्वरा करने के बाद ही लिया जायेगा है।
भारत के संविधान के अनुच्छेद 124(4) में प्रावधान है कि किसी न्यायाधीश को केवल संसद द्वारा लोकसभा और राज्य सभा में प्रस्ताव पास कर ही हटाया जा सकता है।
निष्कर्ष:
इस प्रकार यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि एक न्यायाधीश के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की जा सकती है लेकिन केवल मुख्य न्यायाधीश की पूर्व सहमति के बाद ही। न्यायाधीशों को उनके पद से हटाने के लिए न्यायाधीश जांच अधिनियम, 1968 में महाभियोग की प्रक्रिया का प्राविधान दिया गया है, हालांकि यह ध्यान रखना उचित है कि भारत के इतिहास में उच्च न्यायपालिका के एक भी न्यायाधीश को महाभियोग द्वारा नहीं हटाया गया है।