केरल हाईकोर्ट ने फैमिली कोर्ट के उस आदेश को रद्द कर दिया है, जिसमें एक पत्नी को भरण-पोषण (Maintenance) देने का निर्देश दिया गया था। हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया कि दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 125(4) के तहत, यदि पत्नी “जारकर्म में रह रही है” (Living in Adultery), तो वह भरण-पोषण की हकदार नहीं है।
डॉ. जस्टिस कौसर एडाप्पगथ की पीठ ने एक महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए कहा कि भरण-पोषण की कार्यवाही में एडल्ट्री साबित करने के लिए सबूत का मानक (Standard of Proof) आपराधिक मामलों की तरह “संदेह से परे” (Beyond Reasonable Doubt) नहीं, बल्कि दीवानी मामलों की तरह “संभावनाओं की प्रबलता” (Preponderance of Probabilities) पर आधारित होता है।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला पति द्वारा दायर एक पुनरीक्षण याचिका (Revision Petition) से संबंधित है, जिसमें मुवट्टुपुझा फैमिली कोर्ट के 29 दिसंबर, 2022 के आदेश को चुनौती दी गई थी। दोनों का विवाह 12 सितंबर, 2003 को हुआ था। वैवाहिक विवादों के बाद, पति ने तलाक की याचिका दायर की थी, जिसे स्वीकार कर लिया गया था।
इसके बाद, पत्नी ने CrPC की धारा 125 के तहत 25,000 रुपये मासिक भरण-पोषण की मांग करते हुए मुकदमा दायर किया। पति ने धारा 125(4) का हवाला देते हुए इसका विरोध किया और आरोप लगाया कि पत्नी श्री अजीत वी. नायर नामक व्यक्ति के साथ एडल्ट्री में रह रही है। फैमिली कोर्ट ने पति की दलीलों को खारिज करते हुए उसे 7,500 रुपये प्रति माह भरण-पोषण देने का आदेश दिया था।
कोर्ट में दलीलें
याचिकाकर्ता (पति) के वकील श्री ए. राजसिम्हन ने तर्क दिया कि फैमिली कोर्ट का आदेश अवैध है क्योंकि पति ने पत्नी के एडल्ट्री में रहने के पर्याप्त सबूत पेश किए थे, जिन्हें निचली अदालत ने नजरअंदाज कर दिया।
वहीं, प्रतिवादी (पत्नी) के वकील श्री टी.के. राजेशकुमार ने दलील दी कि कानून के अनुसार पत्नी को भरण-पोषण से तभी वंचित किया जा सकता है जब वह “लगातार” एडल्ट्री में रह रही हो। उन्होंने टी. मर्सी बनाम वी.एम. वर्गीस और संधा बनाम नारायणन जैसे मामलों का हवाला देते हुए कहा कि एडल्ट्री की कोई एक घटना धारा 125(4) को लागू करने के लिए पर्याप्त नहीं है।
हाईकोर्ट का विश्लेषण और टिप्पणियां
1. सबूत का मानक (Standard of Proof) हाईकोर्ट ने कहा कि धारा 125 CrPC के तहत भरण-पोषण का अधिकार एक दीवानी अधिकार (Civil Right) है, और यह पूर्ण (Absolute) नहीं है। कोर्ट ने स्पष्ट किया:
“जब पति यह आरोप लगाता है कि पत्नी एडल्ट्री में रह रही है, तो उसे यह आरोप ‘संदेह से परे’ साबित करने की आवश्यकता नहीं है, जैसा कि आपराधिक मुकदमों में होता है। इसके बजाय, ‘संभावनाओं की प्रबलता’ (Preponderance of Probabilities) के आधार पर सबूत पर्याप्त हैं।”
कोर्ट ने यह भी कहा कि चूंकि एडल्ट्री अक्सर गुप्त रूप से होती है, इसलिए प्रत्यक्ष सबूत मिलना दुर्लभ है, और इसे परिस्थितिजन्य साक्ष्यों (Circumstantial Evidence) के माध्यम से साबित किया जा सकता है।
2. साक्ष्यों का मूल्यांकन हाईकोर्ट ने पति द्वारा पेश किए गए साक्ष्यों की जांच की, जिसमें मेडिकल रिकॉर्ड, गवाहों के बयान और कॉल डिटेल्स शामिल थे:
- मेडिकल साक्ष्य: कोर्ट ने एक मनोवैज्ञानिक (RW2) की गवाही और कैरिटास अस्पताल के उपचार रिकॉर्ड (Ext.X2) पर भरोसा किया। रिकॉर्ड में यह दर्ज था कि पत्नी ने स्वीकार किया था कि उसका श्री अजीत के साथ “पिछले एक साल से विवाहेतर संबंध” था। मनोवैज्ञानिक ने नोट किया था कि पत्नी ने कहा था, “अजीत के साथ उसका रिश्ता उसके पति और परिवार के सदस्यों से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण था।”
- चश्मदीद गवाह: गवाह (RW3) ने कोर्ट को बताया कि उसने पत्नी और श्री अजीत को एक पार्क की गई कार में “आपत्तिजनक स्थिति” में देखा था।
- तकनीकी साक्ष्य: एक संबंधित मामले के जांच अधिकारी (RW4) ने गवाही दी कि जिस समय पत्नी और अजीत को कार में देखा गया था, उस वक्त दोनों की मोबाइल टावर लोकेशन एक ही थी।
- अन्य दस्तावेज: कोर्ट ने Ext.B3 का भी संज्ञान लिया, जो अजीत की पत्नी द्वारा दायर तलाक की याचिका थी, जिसमें उसने भी आरोप लगाया था कि अजीत प्रतिवादी (पत्नी) के साथ एडल्ट्री में रह रहा है।
3. “Living in Adultery” पर निष्कर्ष हाईकोर्ट ने पत्नी की इस दलील को खारिज कर दिया कि यह केवल एक पुरानी या अलग-थलग घटना थी। कोर्ट ने कहा:
“कोई महिला एडल्ट्री में रह रही है या नहीं, इसका निर्धारण केवल संख्या के आधार पर नहीं किया जा सकता। मामले को समग्र रूप से देखा जाना चाहिए… साक्ष्यों से यह सामने आया है कि पत्नी ने स्वयं स्वीकार किया है कि उसका श्री अजीत के साथ एक साल तक संबंध रहा है।”
फैसला
केरल हाईकोर्ट ने माना कि परिस्थितिजन्य साक्ष्य यह स्थापित करने के लिए पर्याप्त हैं कि पत्नी “एडल्ट्री में रह रही है”। कोर्ट ने कहा कि फैमिली कोर्ट का यह निष्कर्ष गलत था कि सबूत अपर्याप्त हैं।
परिणामस्वरूप, हाईकोर्ट ने पुनरीक्षण याचिका को स्वीकार करते हुए फैमिली कोर्ट के भरण-पोषण के आदेश को रद्द कर दिया और यह फैसला सुनाया कि पत्नी भरण-पोषण पाने की हकदार नहीं है।

