केरल हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया है कि वैवाहिक क्रूरता के मामलों में पुलिस शिकायत दर्ज कराने में हुई देरी अभियोजन पक्ष (prosecution) के मामले को कमजोर नहीं करती है। कोर्ट ने टिप्पणी की कि एक पत्नी से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह क्रूरता की पहली घटना पर ही “पुलिस स्टेशन की ओर दौड़ पड़े।”
जस्टिस एम.बी. स्नेहलता ने पति द्वारा दायर पुनरीक्षण याचिका (Revision Petition) को खारिज करते हुए उसकी सजा बरकरार रखी। कोर्ट ने माना कि पीड़ित महिलाएं अक्सर सुलह की उम्मीद और अपने बच्चों के भविष्य को सुरक्षित रखने के लिए उत्पीड़न सहती रहती हैं।
क्या था मामला?
यह मामला टोमोन बनाम केरल राज्य का है। याचिकाकर्ता (पति) ने अपनी दोषसिद्धि (conviction) को मुख्य रूप से इस आधार पर चुनौती दी थी कि शिकायत दर्ज कराने में बहुत देरी हुई थी।
अभियोजन पक्ष के अनुसार, 2003 में शादी के तुरंत बाद से ही आरोपी ने दहेज के लिए पत्नी को मानसिक और शारीरिक रूप से प्रताड़ित करना शुरू कर दिया था। हालांकि, पत्नी ने 2009 तक पुलिस या किसी अन्य प्राधिकरण के समक्ष कोई शिकायत दर्ज नहीं कराई थी।
बचाव पक्ष (Defence) के वकील का तर्क था कि पत्नी छह साल तक आरोपी के साथ रही और कोई शिकायत नहीं की। उनका कहना था कि यह आचरण अभियोजन की कहानी पर “गंभीर संदेह” पैदा करता है और यह दर्शाता है कि क्रूरता के आरोप झूठे हैं।
कोर्ट की टिप्पणी: “सुधार की उम्मीद में इंतजार”
हाईकोर्ट ने बचाव पक्ष की दलीलों को खारिज करते हुए कहा कि वैवाहिक विवादों में पुलिस के पास जाने में देरी पीड़ित के मामले को खारिज करने का आधार नहीं बन सकती। कोर्ट ने कहा कि न्यायिक दृष्टिकोण में पारिवारिक जीवन की सामाजिक वास्तविकताओं को ध्यान में रखा जाना चाहिए।
पीड़ितों के आचरण के संबंध में एक महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए जस्टिस स्नेहलता ने कहा:
“यह दृष्टिकोण नहीं अपनाया जा सकता कि जब भी पति द्वारा क्रूरता का कोई कृत्य किया जाए, तो पीड़ित पत्नी को शिकायत दर्ज कराने के लिए पुलिस स्टेशन या किसी अन्य अधिकारी के पास दौड़ना चाहिए। पीड़ित पत्नी इस उम्मीद में इंतजार कर सकती है कि चीजें बदल जाएंगी, विशेष रूप से उक्त विवाह से पैदा हुए अपने बच्चों की सुरक्षा के लिए।”
कोर्ट ने अभियोजन पक्ष की इस दलील को स्वीकार किया कि पीड़िता ने अपनी शादी बचाने के लिए वर्षों तक उत्पीड़न सहा और अंततः 2009 में जब क्रूरता असहनीय हो गई, तब उसने शिकायत दर्ज कराई।
“स्वतंत्र गवाहों” (Independent Witnesses) पर फैसला
याचिकाकर्ता ने यह भी तर्क दिया था कि कथित क्रूरता को साबित करने के लिए अभियोजन पक्ष ने किसी स्वतंत्र गवाह (जैसे पड़ोसी आदि) से पूछताछ नहीं की। मामले में मुख्य गवाह पत्नी (PW1) और उसके भाई-बहन (PW2 और PW3) थे, जिन्हें बचाव पक्ष ने “हितबद्ध गवाह” (interested witnesses) बताया।
हाईकोर्ट ने इस तर्क को अस्थिर बताते हुए खारिज कर दिया। कोर्ट ने वैवाहिक अपराधों की निजी प्रकृति पर जोर दिया और कहा कि धारा 498A IPC के तहत अपराध “वैवाहिक घर की गोपनीयता” और “बंद दरवाजों के पीछे” किए जाते हैं, जहां आमतौर पर स्वतंत्र गवाह मौजूद नहीं होते हैं।
कोर्ट ने कहा:
“स्वतंत्र सबूतों की अपेक्षा करना घरेलू हिंसा की सामाजिक वास्तविकताओं की अनदेखी करना है… दहेज की मांग के कारण हुए शारीरिक हमले के संबंध में एक विवाहित महिला की गवाही का महत्वपूर्ण साक्ष्य मूल्य है, यदि उसका संस्करण ठोस, विश्वसनीय और भरोसेमंद पाया जाता है।”
निर्णय
हाईकोर्ट ने पाया कि पत्नी और उसके भाई-बहनों की गवाही सुसंगत और विश्वसनीय है। इसके अलावा, मेडिकल सबूतों (घाव प्रमाण पत्र/Wound Certificate) ने भी पत्नी के बयानों की पुष्टि की। कोर्ट ने फैसला सुनाया कि 2009 में शिकायत दर्ज कराने में हुई देरी का कारण वैवाहिक जीवन और बच्चों को बचाने की पीड़िता की इच्छा थी, जो कि एक संतोषजनक स्पष्टीकरण है।
परिणामस्वरूप, कोर्ट ने आरोपी पति की याचिका खारिज करते हुए निचली अदालत द्वारा दी गई सजा को बरकरार रखा।

