कारण बताओ नोटिस में “फरार” (Absconding) शब्द का इस्तेमाल मानहानि नहीं: इलाहाबाद हाईकोर्ट ने नियोक्ता के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही रद्द की

इलाहाबाद हाईकोर्ट (लखनऊ पीठ) ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया है कि किसी कर्मचारी की अनधिकृत अनुपस्थिति के संबंध में जारी कारण बताओ नोटिस में “फरार” (Absconding) शब्द का उपयोग करना मानहानि की श्रेणी में नहीं आता है। न्यायालय ने एक निजी कंपनी के प्रबंध निदेशक (MD) और महाप्रबंधक (HR) के खिलाफ शुरू की गई आपराधिक कार्यवाही को रद्द कर दिया है।

न्यायमूर्ति बृज राज सिंह की पीठ ने दंड प्रक्रिया संहिता (Cr.P.C.) की धारा 482 के तहत दायर याचिकाओं को स्वीकार करते हुए सिविल जज (जूनियर डिवीजन)/न्यायिक मजिस्ट्रेट, लखनऊ द्वारा जारी समन आदेश को निरस्त कर दिया। निचली अदालत ने भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 500 (मानहानि) के तहत शिकायत का संज्ञान लेते हुए कंपनी के अधिकारियों को तलब किया था।

यह याचिकाएं ओएएम इंडस्ट्रीज (इंडिया) प्राइवेट लिमिटेड के प्रबंध निदेशक कमल अग्रवाल और महाप्रबंधक (एचआर) सत्य प्रकाश तिवारी द्वारा दायर की गई थीं। विपक्षी पक्ष, शादाब अहमद, कंपनी का कर्मचारी था, जिसकी नियुक्ति 14 मई 2022 को हुई थी।

निर्णय के अनुसार, विवाद तब शुरू हुआ जब कर्मचारी कथित तौर पर बिना पूर्व अनुमोदन के 23 मई 2023 से 29 मई 2023 तक छुट्टी पर चला गया और एक सहकर्मी के माध्यम से अपनी उपस्थिति भी दर्ज करा दी। कंपनी ने 26 जुलाई 2023 को कारण बताओ नोटिस जारी किया। कर्मचारी ने 27 जुलाई 2023 को ईमेल के जरिए अपनी गलती स्वीकार करते हुए कहा, “यह गलती से हुआ… मुझे जानकारी नहीं है कि मैं पोर्टल पर पीएल (PL) कैसे मार्क कर सकता हूं।”

इसके बाद, कर्मचारी 31 जुलाई 2023 से बिना किसी सूचना के ड्यूटी से अनुपस्थित हो गया। कंपनी ने 11 अगस्त 2023 को एक पत्र जारी कर कहा कि वह ड्यूटी पर रिपोर्ट नहीं कर रहा है और अपनी सेवाओं से “फरार” (Absconding) हो गया है। बाद में कर्मचारी ने सितंबर 2023 में इस्तीफा दे दिया और कंपनी ने उसका पूरा हिसाब करते हुए 58,534 रुपये का भुगतान कर दिया।

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बकाए के पूर्ण भुगतान के बावजूद, कर्मचारी ने अतिरिक्त राशि की मांग करते हुए कानूनी नोटिस भेजे, जिसे कंपनी ने अस्वीकार कर दिया। इसके बाद, 6 फरवरी 2024 को कर्मचारी ने आपराधिक शिकायत दर्ज कराई, जिसमें आरोप लगाया गया कि नोटिस में “फरार” शब्द का इस्तेमाल उसकी मानहानि करता है।

दूसरी धारा 482 याचिका की पोषणीयता पर सवाल

शिकायतकर्ता के वकील ने प्रारंभिक आपत्ति जताई कि आवेदकों ने पहले एक धारा 482 याचिका वापस ले ली थी ताकि वे निचली अदालत में डिस्चार्ज (उन्मोचन) अर्जी दाखिल कर सकें। चूंकि निचली अदालत ने डिस्चार्ज अर्जी खारिज कर दी थी, इसलिए यह तर्क दिया गया कि दूसरी धारा 482 याचिका पोषणीय (maintainable) नहीं है। इसके लिए सुप्रीम कोर्ट के एम.सी. रविकुमार बनाम डी.एस. वेलमुरुगन (2025) के फैसले का हवाला दिया गया।

आवेदकों की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता श्री आई.बी. सिंह ने तर्क दिया कि निचली अदालत ने डिस्चार्ज अर्जी को गुण-दोष (merits) के आधार पर नहीं, बल्कि केवल पोषणीयता के आधार पर खारिज किया था। उन्होंने कहा कि यह “परिस्थितियों में बदलाव” है, जिससे दूसरी याचिका स्वीकार्य हो जाती है।

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हाईकोर्ट ने प्रारंभिक आपत्ति को खारिज कर दिया। मुस्कान एंटरप्राइजेज बनाम पंजाब राज्य (2024) और अनिल खड़कीवाला बनाम राज्य (2019) के मामलों में सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों पर भरोसा करते हुए, न्यायमूर्ति सिंह ने कहा:

“चूंकि डिस्चार्ज मांगने वाले आवेदन को पोषणीयता के आधार पर खारिज कर दिया गया था… यह एक बदली हुई परिस्थिति है, और धारा 482 Cr.P.C. के तहत दूसरा आवेदन पोषणीय है।”

मानहानि पर न्यायालय का विश्लेषण

मामले के गुण-दोष पर विचार करते हुए, न्यायालय ने पाया कि कंपनी ने दो कारण बताओ नोटिस जारी किए थे, जिनमें स्पष्ट था कि शिकायतकर्ता ड्यूटी पर नहीं आया था। कोर्ट ने नोट किया कि शिकायतकर्ता ने अपनी अनधिकृत अनुपस्थिति को स्वीकार भी किया था और यह विवाद मूल रूप से सेवा शर्तों से जुड़ा एक दीवानी (civil) मामला था।

न्यायालय ने “फरार” (Absconding) शब्द की व्याख्या के लिए कैम्ब्रिज और ऑक्सफोर्ड लर्नर्स डिक्शनरी का हवाला दिया, जो इसे गुप्त रूप से चले जाने या बिना अनुमति के ऐसी जगह से भागने के रूप में परिभाषित करते हैं जहां से जाने की अनुमति नहीं है।

न्यायमूर्ति बृज राज सिंह ने टिप्पणी की:

” ‘फरार’ शब्द विपक्षी संख्या-2/शिकायतकर्ता की छवि को खराब नहीं करता है, क्योंकि रिकॉर्ड पर यह स्वीकार किया गया है कि वह कंपनी द्वारा स्वीकृत छुट्टी पर नहीं था और कंपनी द्वारा पत्र भेजा गया था कि वह फरार है, इसलिए उसे ड्यूटी ज्वाइन करने का निर्देश दिया गया था।”

न्यायालय ने आगे कहा कि शिकायतकर्ता को अपनी सेवा संबंधी शिकायतों के लिए उचित मंच पर जाना चाहिए था, न कि आपराधिक शिकायत दर्ज करानी चाहिए थी। कोर्ट ने माना कि यह कार्यवाही व्यक्तिगत प्रतिशोध (personal score) के लिए शुरू की गई थी।

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निर्णय

हाईकोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि यह कार्यवाही द्वेषपूर्ण प्रतीत होती है और एक गुप्त उद्देश्य के साथ शुरू की गई है। सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले हरियाणा राज्य बनाम भजन लाल (1992) का हवाला देते हुए, कोर्ट ने माना कि यह मामला उन श्रेणियों में आता है जहां प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने के लिए अंतर्निहित शक्तियों का प्रयोग किया जाना चाहिए।

नतीजतन, न्यायालय ने आवेदनों को स्वीकार करते हुए 17 फरवरी 2025 के समन आदेश और शिकायत संख्या 9669/2024 की पूरी कार्यवाही को रद्द कर दिया।

केस विवरण:

  • केस शीर्षक: श्री कमल अग्रवाल (एम.डी.) बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य (तथा संबद्ध मामला)
  • केस संख्या: धारा 482 याचिका संख्या 9706/2025 और 9802/2025
  • पीठ: न्यायमूर्ति बृज राज सिंह
  • आवेदकों के वकील: श्री आई.बी. सिंह (वरिष्ठ अधिवक्ता), ईशान बघेल, मो. खालिद
  • विपक्षी पक्ष के वकील: जी.ए., अभय प्रताप सिंह, प्रियंका सिंह

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