पैसे न होने पर भी इलाज से इनकार नहीं कर सकते निजी अस्पताल: केरल हाईकोर्ट ने क्लिनिकल एस्टैब्लिशमेंट एक्ट की वैधता को बरकरार रखा

संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत ‘जीवन के अधिकार’ को सुदृढ़ करते हुए, केरल हाईकोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसले में स्पष्ट किया है कि राज्य का कोई भी अस्पताल या क्लिनिकल प्रतिष्ठान किसी आपातकालीन मरीज को पैसे न होने या दस्तावेजों की कमी के आधार पर प्राथमिक जीवन रक्षक उपचार (Initial Life-Saving Aid) देने से इनकार नहीं कर सकता।

न्यायमूर्ति सुश्रुत अरविंद धर्माधिकारी और न्यायमूर्ति श्याम कुमार वी.एम. की खंडपीठ ने केरल क्लिनिकल एस्टैब्लिशमेंट (पंजीकरण और विनियमन) अधिनियम, 2018 की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं को खारिज कर दिया। कोर्ट ने कहा कि आपातकालीन चिकित्सा और पारदर्शिता से जुड़े प्रावधान जनहित में आवश्यक हैं। इसके साथ ही कोर्ट ने निजी अस्पतालों के लिए सख्त दिशा-निर्देश जारी किए हैं।

मामले का संक्षिप्त विवरण और निर्णय

केरल प्राइवेट हॉस्पिटल्स एसोसिएशन (KPHA) और इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (IMA) ने एकल पीठ (Single Judge) के 23 जून, 2025 के फैसले के खिलाफ अपील दायर की थी। अपीलकर्ताओं ने मुख्य रूप से अधिनियम की धारा 47 (आपातकालीन उपचार) और धारा 39 (शुल्कों का प्रदर्शन) को चुनौती दी थी। उनका तर्क था कि छोटे क्लीनिकों के लिए आपातकालीन स्थितियों को संभालना या मरीजों के सुरक्षित परिवहन (Safe Transport) की व्यवस्था करना अव्यावहारिक है।

खंडपीठ ने इन तर्कों को खारिज करते हुए कहा कि मरीज को स्थिर (Stabilize) करने का दायित्व अस्पताल की क्षमता के अनुसार (Capacity-Graded) होगा, लेकिन इलाज से इनकार करने की अनुमति किसी को नहीं है। कोर्ट ने कहा कि यह कानून WHO के मानकों और अमेरिकी कानून EMTALA (इमरजेंसी मेडिकल ट्रीटमेंट एंड एक्टिव लेबर एक्ट) की तर्ज पर है।

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मामले की पृष्ठभूमि

याचिकाकर्ताओं का कहना था कि अधिनियम के प्रावधान मनमाने और अस्पष्ट हैं, जो संविधान के अनुच्छेद 14 और 19(1)(g) के तहत उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करते हैं। उन्होंने विशेष रूप से ‘पैकेज रेट्स’ (Package Rates) प्रदर्शित करने की अनिवार्यता का विरोध किया, यह तर्क देते हुए कि हर मरीज के इलाज का खर्च अलग होता है, जिसे पहले से निर्धारित नहीं किया जा सकता। इसके अलावा, पंजीकरण के लिए कर्मचारियों का विस्तृत विवरण देने को उन्होंने गोपनीयता का उल्लंघन बताया।

पक्षकारों की दलीलें

अपीलकर्ता (KPHA और IMA):

  • धारा 47 की अव्यावहारिकता: वरिष्ठ अधिवक्ता वी.वी. अशोकन ने तर्क दिया कि छोटे क्लीनिकों के पास आपातकालीन स्थिति से निपटने या एम्बुलेंस की व्यवस्था करने के लिए पर्याप्त स्टाफ और बुनियादी ढांचा नहीं होता।
  • दरों की अस्पष्टता: उपचार की लागत मरीज की स्थिति पर निर्भर करती है, इसलिए पहले से ‘पैकेज रेट’ घोषित करना संभव नहीं है।
  • गोपनीयता: कर्मचारियों की सूची सार्वजनिक करने से प्रतिद्वंद्वी संस्थान कर्मचारियों को ‘पोच’ (Poach) कर सकते हैं।

प्रतिवादी (केरल राज्य):

  • जन सुरक्षा: स्टेट अटॉर्नी एन. मनोज कुमार ने कहा कि यह एक कल्याणकारी कानून है जिसका उद्देश्य चिकित्सा त्रुटियों को कम करना और मरीजों की सुरक्षा सुनिश्चित करना है।
  • अंतर्राष्ट्रीय मानक: राज्य ने तर्क दिया कि आपातकालीन स्थिति में मरीज को स्थिर करना एक वैश्विक मानक है।
  • पारदर्शिता: मरीजों को सूचित विकल्प चुनने में मदद करने के लिए दरों का प्रदर्शन आवश्यक है।
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कोर्ट का विश्लेषण

खंडपीठ ने अस्पतालों के कानूनी और नैतिक दायित्वों पर विस्तार से चर्चा की:

  1. आपातकालीन स्थिरीकरण (Emergency Stabilization – धारा 47): कोर्ट ने परमानंद कटारा बनाम भारत संघ मामले का हवाला देते हुए कहा कि जीवन की रक्षा करना सर्वोच्च दायित्व है।
    “जीवन रक्षक प्राथमिक उपचार और स्थिरीकरण (Stabilization) न्यूनतम दायित्व है। भुगतान में असमर्थता या दस्तावेजों की कमी के कारण इलाज में देरी या इनकार नहीं किया जा सकता।” कोर्ट ने स्पष्ट किया कि छोटे क्लीनिकों से न्यूरोसर्जरी की उम्मीद नहीं की जाती, लेकिन उन्हें अपनी क्षमता के अनुसार प्राथमिक उपचार और एयरवे मैनेजमेंट (Airway Management) सुनिश्चित करना होगा।
  2. पारदर्शिता (धारा 39): ‘पैकेज रेट्स’ को अस्पष्ट बताने वाले तर्क को खारिज करते हुए कोर्ट ने कहा:
    “पारदर्शिता शोषणकारी बिलिंग के खिलाफ एक ढाल है। अधिनियम हर संभावित जटिलता की पहले से कीमत तय करने को नहीं कहता, बल्कि सामान्य प्रक्रियाओं के लिए बेसलाइन टैरिफ की मांग करता है।”
  3. कठिनाई का तर्क: कोर्ट ने ‘ड्यूरा लेक्स सेड लेक्स’ (Dura Lex Sed Lex – कानून कठोर है, लेकिन यही कानून है) के सिद्धांत का हवाला देते हुए कहा कि केवल कार्यान्वयन में कठिनाई के आधार पर जनहित के कानून को रद्द नहीं किया जा सकता।

निर्णय और दिशा-निर्देश

हाईकोर्ट ने अपील खारिज करते हुए अधिनियम को वैध ठहराया और इसे सख्ती से लागू करने के लिए तत्काल प्रभाव से निम्नलिखित दिशा-निर्देश जारी किए:

  1. इलाज से इनकार नहीं: कोई भी अस्पताल अग्रिम भुगतान (Advance Payment) न होने या दस्तावेजों की कमी के कारण प्राथमिक जीवन रक्षक उपचार देने से मना नहीं करेगा।
  2. दरों का प्रदर्शन: अस्पतालों को रिसेप्शन और अपनी वेबसाइट पर मलयालम और अंग्रेजी में बेसलाइन और पैकेज रेट्स प्रमुखता से प्रदर्शित करने होंगे।
  3. मरीज सूचना विवरणिका (Brochure): प्रवेश के समय मरीजों को एक ब्रोशर दिया जाना चाहिए जिसमें सेवाओं, दरों और शिकायत निवारण तंत्र की जानकारी हो।
  4. डिस्चार्ज रिकॉर्ड: डिस्चार्ज के समय अस्पताल को मरीज को सभी जांच रिपोर्ट (ईसीजी, एक्स-रे, सीटी स्कैन आदि) सौंपनी होगी।
  5. शिकायत निवारण: हर अस्पताल को एक शिकायत डेस्क/हेल्पलाइन बनानी होगी और 7 दिनों के भीतर शिकायतों का समाधान करना होगा।
  6. अनुपालन ऑडिट: जिला पंजीकरण प्राधिकरण को 60 दिनों के भीतर इन मानकों के अनुपालन की जांच (Audit) करने का निर्देश दिया गया है।
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कोर्ट ने मुख्य सचिव और राज्य पुलिस प्रमुख को इस फैसले का सख्ती से पालन सुनिश्चित करने का आदेश दिया। कोर्ट ने टिप्पणी की:

“यह फैसला केवल कानून की घोषणा नहीं है, बल्कि गरिमापूर्ण, नैतिक और समान चिकित्सा देखभाल के अधिकार की पुन पुष्टि है।”

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