कलकत्ता हाईकोर्ट ने परक्राम्य लिखत अधिनियम (Negotiable Instruments Act), 1881 की धारा 138 के तहत चल रही कार्यवाही में एक निर्माण कंपनी और उसके निदेशकों की सजा को बरकरार रखा है। अदालत ने स्पष्ट किया है कि बिना किसी पुख्ता या पुष्टि करने वाले साक्ष्य (corroborative evidence) के केवल दबाव (coercion) का “कोरा आरोप” (bald allegation) लगाना, कानून के तहत तय वैधानिक धारणा (statutory presumption) को खारिज करने के लिए पर्याप्त नहीं है।
19 नवंबर, 2025 को दिए गए फैसले में, न्यायमूर्ति अजय कुमार गुप्ता ने मा क्रिंग कंस्ट्रक्शन प्राइवेट लिमिटेड (Ma Kreeng Construction Pvt. Ltd.) और उसके निदेशकों द्वारा दायर आपराधिक पुनरीक्षण याचिका (Criminal Revisional Application) को खारिज कर दिया। हाईकोर्ट ने निचली अदालतों के उस आदेश की पुष्टि की, जिसमें निदेशकों को साधारण कारावास की सजा सुनाई गई थी और भारी मुआवजे का भुगतान करने का निर्देश दिया गया था।
मामले की पृष्ठभूमि
यह कानूनी विवाद याचिकाकर्ताओं, मा क्रिंग कंस्ट्रक्शन प्राइवेट लिमिटेड और अन्य, तथा शिकायतकर्ता श्री दीपक साहा के बीच एक संपत्ति समझौते से उत्पन्न हुआ था। शिकायतकर्ता और उनकी पत्नी ने 118, राजा दीनेन्द्र स्ट्रीट, कोलकाता में लगभग 2,500 वर्ग फुट (सुपर बिल्ट-अप एरिया) का ऑफिस स्पेस खरीदने के लिए कुल 68,00,000 रुपये में समझौता किया था।
शिकायतकर्ता का आरोप था कि पूरा भुगतान करने के बावजूद, याचिकाकर्ता उन्हें कब्जा सौंपने या बिक्री विलेख (conveyance deed) निष्पादित करने में विफल रहे। इसके बाद, 19 मई, 2009 को दोनों पक्षों के बीच एक रिफंड एग्रीमेंट हुआ, जिसमें याचिकाकर्ताओं ने मुआवजे सहित कुल 1,10,00,000 रुपये वापस करने पर सहमति जताई।
इस दायित्व के आंशिक निर्वहन के रूप में, याचिकाकर्ताओं ने 23 अगस्त, 2009 को 25,00,000 रुपये का एक अकाउंट पेयी चेक (संख्या 092403) जारी किया। हालांकि, बैंक में प्रस्तुत करने पर यह चेक “Exceeds arrangement” (व्यवस्था से अधिक राशि) टिप्पणी के साथ बाउंस हो गया।
कानूनी नोटिस के बावजूद भुगतान न होने पर, शिकायतकर्ता ने एन.आई. एक्ट की धारा 138 के तहत मामला दर्ज कराया। 6 दिसंबर, 2016 को मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट, 8वीं कोर्ट, कलकत्ता ने याचिकाकर्ताओं को दोषी ठहराया। कंपनी (याचिकाकर्ता संख्या 1) पर 10 लाख रुपये का जुर्माना लगाया गया, जबकि याचिकाकर्ता संख्या 2 और 3 को तीन-तीन महीने के साधारण कारावास की सजा सुनाई गई और प्रत्येक को 20-20 लाख रुपये का मुआवजा देने का आदेश दिया गया। 28 जुलाई, 2017 को अपीलीय अदालत ने भी इस सजा को बरकरार रखा।
पक्षों की दलीलें
याचिकाकर्ताओं ने निचली अदालत के फैसले को हाईकोर्ट में चुनौती दी और मुख्य रूप से दो आधार प्रस्तुत किए:
- दबाव और जबरदस्ती: उनका कहना था कि रिफंड एग्रीमेंट और विवादित चेक दबाव और जबरदस्ती (coercion) के तहत लिए गए थे। उन्होंने तर्क दिया कि याचिकाकर्ता संख्या 2 ने इस घटना के संबंध में 19 मई, 2009 को पुलिस में शिकायत भी दर्ज कराई थी।
- प्रतिफल (Consideration) का अभाव: याचिकाकर्ताओं ने दावा किया कि शिकायतकर्ता ने 68,00,000 रुपये की मूल राशि का भुगतान कभी किया ही नहीं था, इसलिए कोई कानूनी रूप से लागू करने योग्य दायित्व (legally enforceable liability) नहीं बनता।
इसके विपरीत, विपक्षी पक्ष (शिकायतकर्ता) के वकील ने तर्क दिया कि चेक जारी करना और उसका अनादरित (dishonour) होना निर्विवाद तथ्य हैं। उन्होंने कहा कि बचाव पक्ष ट्रायल के दौरान अपनी “मनगढ़ंत कहानी” साबित करने में विफल रहा है।
हाईकोर्ट का विश्लेषण और निष्कर्ष
न्यायमूर्ति अजय कुमार गुप्ता ने दोनों पक्षों की दलीलों और निचली अदालतों के निष्कर्षों की जांच करने के बाद पाया कि पुनरीक्षण याचिका में कोई दम नहीं है। अदालत ने नोट किया कि याचिकाकर्ताओं ने चेक जारी करने और उसके बाउंस होने की बात स्वीकार की है।
दबाव के आरोप पर: अदालत ने पाया कि पुलिस शिकायत और एक “कोरे आरोप” के अलावा, दबाव के दावे को साबित करने के लिए रिकॉर्ड पर कोई “स्वतंत्र, विश्वसनीय या पुष्टि करने वाला साक्ष्य” नहीं था। अदालत ने टिप्पणी की:
“केवल शिकायत दर्ज कराना, बिना किसी दबाव, धमकी या मजबूरी के ठोस सबूत के, वैधानिक धारणा को विस्थापित नहीं कर सकता, विशेष रूप से तब जब याचिकाकर्ताओं ने इसके बाद चुप्पी साधे रखी और चेक के समझौते की वैधता को चुनौती देने के लिए कोई समवर्ती कदम नहीं उठाया।”
सुप्रीम कोर्ट के कुमार एक्सपोर्ट्स बनाम शर्मा कार्पेट्स (2009) के फैसले का हवाला देते हुए, हाईकोर्ट ने दोहराया कि केवल एक “कोरा तर्क पर्याप्त नहीं है” और आरोपी को अपने दावे के समर्थन में संभावित साक्ष्य रिकॉर्ड पर लाना होगा।
भुगतान न होने की दलील पर: हाईकोर्ट ने याचिकाकर्ताओं के इस तर्क को खारिज कर दिया कि शिकायतकर्ता ने 68 लाख रुपये का भुगतान नहीं किया था। अदालत ने कहा कि याचिकाकर्ताओं ने यह दिखाने के लिए कोई बैंक विवरण या वित्तीय रिकॉर्ड पेश नहीं किया कि यह दायित्व असंभव था। हितेन पी. दलाल बनाम ब्रतिन्द्रनाथ बनर्जी (2001) का हवाला देते हुए, अदालत ने कहा कि जब तक आरोपी विश्वसनीय सामग्री पेश नहीं करता, तब तक कानूनन धारणा (presumption) बनी रहती है।
इसके अलावा, कोर्ट ने इस बात पर जोर दिया कि याचिकाकर्ताओं ने 19 मई, 2009 के रिफंड एग्रीमेंट में “स्पष्ट रूप से 1,10,00,000 रुपये की देनदारी स्वीकार की थी,” जिससे उनका बचाव पक्ष और कमजोर हो गया।
फैसला
कलकत्ता हाईकोर्ट ने आपराधिक पुनरीक्षण याचिका (C.R.R. 3120 of 2017) को खारिज कर दिया और ट्रायल कोर्ट द्वारा सुनाई गई सजा और मुआवजे के आदेश की पुष्टि की।
अदालत ने याचिकाकर्ता संख्या 2 और 3 को निर्देश दिया कि वे अपनी सजा भुगतने के लिए इस फैसले की तारीख से 15 दिनों के भीतर ट्रायल कोर्ट के समक्ष आत्मसमर्पण करें। अदालत ने यह भी उल्लेख किया कि इन्हीं याचिकाकर्ताओं द्वारा जारी अन्य चेकों से संबंधित समान पुनरीक्षण याचिकाएं 2017 में ही एक अन्य पीठ द्वारा खारिज की जा चुकी हैं।
फैसला सुनाए जाने के बाद याचिकाकर्ताओं के वरिष्ठ वकील ने फैसले के संचालन पर रोक लगाने की प्रार्थना की, जिसे हाईकोर्ट ने अस्वीकार कर दिया।
केस विवरण:
- केस शीर्षक: मा क्रिंग कंस्ट्रक्शन प्राइवेट लिमिटेड और अन्य बनाम श्री दीपक साहा और अन्य
- केस नंबर: C.R.R. 3120 of 2017
- न्यायाधीश: न्यायमूर्ति अजय कुमार गुप्ता




