दिल्ली हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया है कि यदि किसी व्यक्ति के अपने परिवार के साथ संबंध तनावपूर्ण हैं, तो स्वाभाविक वारिसों (Natural Heirs) को संपत्ति से बेदखल करना और किसी मित्र या बाहरी व्यक्ति के पक्ष में वसीयत करना अपने आप में कोई संदिग्ध परिस्थिति नहीं है।
न्यायमूर्ति अनिल क्षेत्रपाल और न्यायमूर्ति हरीश वैद्यनाथन शंकर की खंडपीठ ने एकल न्यायाधीश (Single Judge) के 2009 के उस फैसले को रद्द कर दिया, जिसमें एक व्यक्ति द्वारा अपने मित्र की माँ के पक्ष में की गई वसीयत को प्रोबेट (Probate) देने से इनकार कर दिया गया था। अदालत ने कहा कि, “केवल किसी गैर-रिश्तेदार को लाभ पहुँचाना या स्वाभाविक वारिसों को बेदखल करना वसीयत को खारिज करने के लिए पर्याप्त आधार नहीं है।”
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला स्वर्गीय प्रवीण मल्होत्रा (वसीयतकर्ता) की वसीयत से जुड़ा है, जिन्होंने 26 जुलाई 1994 को एक पंजीकृत वसीयत के माध्यम से अपनी चल और अचल संपत्ति अपनी मित्र की माँ, सुश्री शालिनी आशा चोपड़ा (लाभार्थी) को दे दी थी। प्रवीण की मृत्यु 19-20 दिसंबर 1994 की रात को हुई थी।
याचिकाकर्ता विक्रम चोपड़ा (लाभार्थी के पुत्र) ने एकल न्यायाधीश के फैसले को चुनौती दी थी, जिन्होंने 16 संदिग्ध परिस्थितियों का हवाला देते हुए वसीयत को प्रोबेट देने से मना कर दिया था।
मामले के तथ्यों के अनुसार, प्रवीण की पत्नी की मृत्यु 1989 में हो गई थी, जिसके बाद प्रवीण, उनके माता-पिता और बहन को दहेज मृत्यु के मामले में आपराधिक मुकदमे का सामना करना पड़ा था। यद्यपि वे एक ही घर में रहते थे, लेकिन प्रवीण और उनके माता-पिता के बीच संबंध बेहद तनावपूर्ण थे।
विरोधियों (राज्य और रिश्तेदारों) ने तर्क दिया कि लाभार्थी परिवार के लिए अजनबी था और वसीयत संदिग्ध परिस्थितियों में तैयार की गई थी। उन्होंने आरोप लगाया कि प्रवीण सिर की चोट से पीड़ित थे, अत्यधिक शराब का सेवन करते थे और लाभार्थी के अनुचित प्रभाव (Undue Influence) में थे।
पक्षकारों की दलीलें
अपीलकर्ता की ओर से दलील दी गई कि वसीयतकर्ता वसीयत करते समय मानसिक रूप से पूरी तरह स्वस्थ थे। यह बताया गया कि प्रवीण की चोपड़ा परिवार के साथ 1980 से मित्रता थी। वकील ने कोर्ट को बताया कि प्रवीण के अपने माता-पिता के साथ संबंध इतने बिगड़ चुके थे कि पिता ने अखबार में नोटिस देकर उन्हें बेदखल कर दिया था और उन पर मुकदमे भी किए थे। ऐसे कठिन समय में लाभार्थी ने ही प्रवीण की देखभाल की थी।
दूसरी ओर, उत्तरदाताओं ने एकल न्यायाधीश के निष्कर्षों का समर्थन करते हुए कहा कि वसीयतकर्ता की मानसिक और शारीरिक स्थिति अप्रैल 1994 में हुई एक दुर्घटना के कारण ठीक नहीं थी और वे शराब के लत के शिकार थे। उन्होंने तर्क दिया कि वसीयत और पावर ऑफ अटॉर्नी का एक के बाद एक निष्पादन हेरफेर का संकेत देता है।
हाईकोर्ट का विश्लेषण
खंडपीठ ने मेडिकल सबूतों और घटनाक्रम का बारीकी से विश्लेषण किया और एकल न्यायाधीश द्वारा बताई गई सभी 16 संदिग्ध परिस्थितियों को खारिज कर दिया।
1. मानसिक क्षमता और सिर की चोट: अदालत ने पाया कि अप्रैल 1994 में बनारस में रिक्शे से गिरने के बावजूद, एम्स (AIIMS) और निजी अस्पतालों के मेडिकल रिकॉर्ड यह नहीं दर्शाते कि प्रवीण मानसिक रूप से अक्षम थे। मेडिकल बोर्ड की रिपोर्ट के अनुसार, “उन्होंने कभी अपनी चेतना नहीं खोई, कोई न्यूरोलॉजिकल कमी नहीं थी… और किसी भी समय याददाश्त नहीं गई थी।”
अदालत ने कहा, “विद्वान एकल न्यायाधीश का यह निष्कर्ष कि वह चोटों से कभी नहीं उभरे और लगातार चिकित्सा उपचार के अधीन थे, पुष्टि नहीं करता है।”
2. शराब की लत का आरोप: अदालत ने प्रवीण के ‘क्रॉनिक अल्कोहलिक’ (शराब का आदी) होने के दावे को खारिज कर दिया। कोर्ट ने एम्स की रिपोर्ट का हवाला दिया जिसमें कहा गया था कि “लंबे समय तक शराब के सेवन या इसके विड्रॉल दौरे का कोई संकेत नहीं है।” उत्तरदाताओं द्वारा पेश किए गए ओपीडी कार्ड को अदालत ने खारिज कर दिया क्योंकि उसमें मरीज के नाम और तारीख में विसंगतियां थीं।
3. स्वाभाविक वारिसों की बेदखली: अदालत ने दस्तावेजी सबूतों को महत्व दिया जो यह साबित करते थे कि पारिवारिक संबंध टूट चुके थे। कोर्ट ने नोट किया कि माता-पिता ने अपने ही बेटे के खिलाफ निषेधाज्ञा (Injunction) और विशिष्ट पालन (Specific Performance) के मुकदमे दायर किए थे। इसके अलावा, प्रवीण ने लिखित बयानों में आरोप लगाया था कि उनके माता-पिता उनके द्वारा साइन किए गए खाली कागजों का दुरुपयोग कर रहे थे।
खंडपीठ ने टिप्पणी की: “वसीयतकर्ता का अपने पैतृक घर की पहली मंजिल पर रहने के बावजूद माता-पिता और बहन से तनावपूर्ण संबंध होना, और बाद में घर से निकाल दिया जाना, यह दर्शाता है कि परिवार के साथ रिश्ते सामान्य नहीं थे।”
4. लाभार्थी के साथ संबंध: एकल न्यायाधीश के इस निष्कर्ष को कि लाभार्थी एक “अजनबी” थी, हाईकोर्ट ने खारिज कर दिया। कोर्ट ने 14 साल पुरानी दोस्ती के सबूतों को स्वीकार करते हुए कहा, “एक बेटे के दोस्त को बेटे जैसा ही माना जाता है, अजनबी नहीं, खासकर जब जुड़ाव लंबा हो।”
कानूनी सिद्धांत
अदालत ने एच. वेंकटचला अयंगर बनाम बी.एन. थिम्मजम्मा और शिवकुमार बनाम शरणबसप्पा के सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसलों का हवाला देते हुए दोहराया कि:
“एक परिस्थिति तभी ‘संदिग्ध’ होती है जब वह सामान्य नहीं होती है या ‘सामान्य स्थिति में अपेक्षित नहीं होती है या एक सामान्य व्यक्ति से अपेक्षित नहीं होती है’।”
कोर्ट ने कहा कि वसीयतकर्ता के लिए यह जरूरी नहीं है कि वह अपने माता-पिता से सक्रिय दुश्मनी साबित करे, हालाँकि इस मामले में तनावपूर्ण संबंध स्पष्ट थे।
फैसला
खंडपीठ ने निष्कर्ष निकाला कि एकल न्यायाधीश ने प्रोबेट देने से इनकार करके गलती की थी। हाईकोर्ट ने माना कि वसीयत वैध रूप से निष्पादित और पंजीकृत थी और अपीलकर्ता ने सबूत का भार (Burden of Proof) पूरा कर दिया था।
अदालत ने फैसला सुनाया, “समकालीन दस्तावेजों के साथ वसीयत को पढ़ने से स्पष्ट है कि यह वसीयतकर्ता का स्वैच्छिक और सचेत निर्णय था।”
तदनुसार, अपील स्वीकार की गई, 11 सितंबर 2009 के फैसले को रद्द कर दिया गया, और 27 जुलाई 1994 की वसीयत को असली और प्रोबेट के योग्य माना गया।
मामले का विवरण:
- शीर्षक: विक्रम चोपड़ा बनाम राज्य और अन्य
- केस संख्या: FAO (OS) 30/2010
- कोरम: न्यायमूर्ति अनिल क्षेत्रपाल और न्यायमूर्ति हरीश वैद्यनाथन शंकर




