सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया है कि किसी विवाह को केवल अलग रहने के आधार पर ‘असाध्य रूप से टूटा हुआ’ (Irretrievably Broken Down) मानने से पहले अदालतों के लिए यह निर्धारित करना अनिवार्य है कि अलगाव के लिए कौन सा पक्ष जिम्मेदार है।
जस्टिस सूर्य कांत और जस्टिस जॉयमाल्या बागची की पीठ ने उत्तराखंड हाईकोर्ट के उस फैसले को रद्द कर दिया है, जिसके तहत पति को क्रूरता और परित्याग (Desertion) के आधार पर तलाक की डिक्री प्रदान की गई थी। शीर्ष अदालत ने मामले को पुनः विचार के लिए हाईकोर्ट के पास वापस भेज दिया है।
मामले की पृष्ठभूमि (Case Background)
पक्षकारों का विवाह 20 मई 2009 को हुआ था और 7 मार्च 2010 को उनके घर एक बेटे का जन्म हुआ। वैवाहिक कलह के कारण जल्द ही दोनों पक्षों के बीच मुकदमेबाजी शुरू हो गई।
प्रतिवादी (पति) ने पहले 2010 में क्रूरता के आधार पर तलाक के लिए दीवानी मुकदमा दायर किया, जिसे बाद में उसने वापस ले लिया। इसके बाद, 2013 में पति ने हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13(1)(i)(b) के तहत ‘परित्याग’ (Desertion) के आधार पर दूसरी याचिका दायर की।
ट्रायल कोर्ट ने 15 फरवरी 2018 को पति की तलाक याचिका खारिज कर दी थी। हालांकि, अपील पर सुनवाई करते हुए उत्तराखंड हाईकोर्ट की खंडपीठ ने 20 सितंबर 2019 को फैसला पलट दिया और विवाह को भंग करते हुए तलाक की डिक्री दे दी। इसके खिलाफ पत्नी ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था।
कानूनी मुद्दे और सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियाँ
सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि हाईकोर्ट ने मुख्य रूप से पति द्वारा बताए गए ‘मानसिक क्रूरता’ के मौखिक बयानों पर भरोसा किया था। शीर्ष अदालत ने इस बात पर नाराजगी जताई कि हाईकोर्ट ने पत्नी की इस विशिष्ट दलील पर ध्यान नहीं दिया कि उसे “वैवाहिक घर से बाहर निकाल दिया गया था और अलग रहने के लिए मजबूर किया गया था।”
सुप्रीम कोर्ट ने तीन प्रमुख मुद्दों को रेखांकित किया, जिनका निर्धारण हाईकोर्ट को करना चाहिए था, लेकिन वह विफल रहा:
- क्या अपीलकर्ता (पत्नी) को वैवाहिक घर से निकाला गया था, या उसने स्वेच्छा से प्रतिवादी (पति) का परित्याग किया था?
- क्या पहली तलाक याचिका (जो क्रूरता के आधार पर थी) को वापस लेना, उसी कारण (Cause of Action) पर दूसरी याचिका दायर करने में बाधा उत्पन्न करेगा?
- क्या प्रतिवादी (पति) ने पत्नी को वैवाहिक घर में शामिल न होने देकर या नाबालिग बच्चे के भरण-पोषण और स्नेह से वंचित रखकर क्रूरता की है?
‘विवाह के असाध्य रूप से टूटने’ के सिद्धांत पर कोर्ट का रुख
टूटे हुए विवाहों के संबंध में आधुनिक न्यायिक रुझान को संबोधित करते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण चेतावनी जारी की। पीठ ने माना कि अक्सर अदालतें यह मान लेती हैं कि लंबा अलगाव विवाह के टूटने का संकेत है, लेकिन अलगाव के मूल कारण का विश्लेषण किए बिना इसे एक अनुमानित निष्कर्ष नहीं माना जा सकता।
कोर्ट ने अपने आदेश में कहा:
“हालांकि, ऐसे निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले, फैमिली कोर्ट या हाईकोर्ट के लिए यह निर्धारित करना अनिवार्य है कि दोनों में से कौन वैवाहिक बंधन को तोड़ने और दूसरे को अलग रहने के लिए मजबूर करने के लिए जिम्मेदार है। जब तक जानबूझकर किए गए परित्याग (Willful Desertion) या साथ रहने से इनकार करने के ठोस सबूत न हों, विवाह के असाध्य रूप से टूटने का निष्कर्ष बच्चों पर विनाशकारी प्रभाव डाल सकता है।”
पीठ ने जोर देकर कहा कि इस तरह के निष्कर्ष पर पहुंचना अदालतों पर एक “गंभीर जिम्मेदारी” (Onerous Duty) डालता है कि वे रिकॉर्ड पर मौजूद सभी सबूतों, सामाजिक परिस्थितियों और पार्टियों की पृष्ठभूमि का गहराई से विश्लेषण करें।
निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने माना कि हाईकोर्ट ने अलगाव के मूल कारण को निर्धारित करने के लिए आवश्यक जांच नहीं की थी। परिणामस्वरूप, अपील को आंशिक रूप से स्वीकार (Allowed in Part) किया गया।
शीर्ष अदालत ने 20 सितंबर 2019 के हाईकोर्ट के फैसले को रद्द कर दिया और मामले को कानून के अनुसार नए सिरे से विचार करने के लिए उत्तराखंड हाईकोर्ट को वापस (Remit) भेज दिया। दोनों पक्षों को 24 नवंबर 2025 को हाईकोर्ट के समक्ष उपस्थित होने का निर्देश दिया गया है।
केस विवरण:
- केस नंबर: सिविल अपील (SLP (Civil) No. 24920/2019 से उद्भूत)
- पीठ: जस्टिस सूर्य कांत और जस्टिस जॉयमाल्या बागची




