आर्बिट्रेशन एक्ट की शक्तियों के आगे ‘यूशुरियस लोन्स एक्ट’ प्रभावी नहीं; सुप्रीम कोर्ट ने वाणिज्यिक विवाद में 24% ब्याज दर को बरकरार रखा

सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को एक महत्वपूर्ण फैसले में उस अपील को खारिज कर दिया जिसमें मध्यस्थता (Arbitration) अवार्ड के तहत 24% प्रति वर्ष की ब्याज दर को चुनौती दी गई थी। शीर्ष अदालत ने स्पष्ट किया कि विशुद्ध रूप से वाणिज्यिक लेनदेन (commercial transactions) में ब्याज की उच्च दर अपने आप में ‘लोक नीति’ (Public Policy) का उल्लंघन नहीं है। कोर्ट ने यह भी व्यवस्था दी कि यूशुरियस लोन्स एक्ट, 1918 (Usurious Loans Act, 1918) के प्रावधान मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 (Arbitration and Conciliation Act, 1996) के तहत अदालतों को मिली व्यापक शक्तियों पर हावी नहीं हो सकते।

जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और जस्टिस के.वी. विश्वनाथन की पीठ ने मद्रास हाईकोर्ट के फैसले को बरकरार रखा, जिसने उधारकर्ताओं के खिलाफ पारित आर्बिट्रेशन अवार्ड की पुष्टि की थी।

मामले की पृष्ठभूमि

यह विवाद 2006 में अपीलकर्ताओं, मैसर्स श्री लक्ष्मी होटल प्रा. लिमिटेड व अन्य, और प्रतिवादी, श्रीराम सिटी यूनियन फाइनेंस लिमिटेड (एक NBFC) के बीच हुए दो ऋण समझौतों (Loan Agreements) से जुड़ा है। अपीलकर्ताओं ने इंडियन बैंक के एक पुराने ‘ब्रिज लोन’ को चुकाने के लिए कुल 1,57,25,000 रुपये उधार लिए थे। समझौते के तहत ब्याज की दर 24% प्रति वर्ष तय की गई थी।

ऋण चुकाने में चूक और 2008 में अपीलकर्ताओं द्वारा जारी 1.89 करोड़ रुपये का चेक बाउंस होने के बाद, प्रतिवादी ने मध्यस्थता (Arbitration) की कार्यवाही शुरू की। एकमात्र मध्यस्थ (Sole Arbitrator), जो एक सेवानिवृत्त जिला न्यायाधीश थे, ने 27 दिसंबर 2014 को एक अवार्ड पारित किया। इसमें अपीलकर्ताओं को 2,21,08,244 रुपये की राशि का भुगतान करने का निर्देश दिया गया, जिस पर क्लेम की तारीख से वसूली तक 24% वार्षिक ब्याज भी देय था।

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अपीलकर्ताओं ने इस अवार्ड को आर्बिट्रेशन एक्ट की धारा 34 के तहत चुनौती दी, जिसे मद्रास हाईकोर्ट के एकल न्यायाधीश ने खारिज कर दिया। इसके बाद धारा 37 के तहत दायर अपील को भी हाईकोर्ट की खंडपीठ ने खारिज कर दिया, जिसके बाद यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा।

पक्षकारों की दलीलें

अपीलकर्ताओं का तर्क: अपीलकर्ताओं की ओर से पेश वकील सुश्री नीना नरीमन ने तर्क दिया कि 24% की ब्याज दर अत्यधिक और अनुचित (usurious) है और यह भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) के दिशानिर्देशों का उल्लंघन करती है। उन्होंने यूशुरियस लोन्स एक्ट, 1918 का हवाला देते हुए कहा कि अदालत के पास अत्यधिक ब्याज दायित्व से ऋणी को राहत देने की शक्ति है। उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि उनसे कोरे (blank) दस्तावेजों पर हस्ताक्षर कराए गए थे।

प्रतिवादी का तर्क: दूसरी ओर, प्रतिवादी की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता श्री कृष्णन वेणुगोपाल ने तर्क दिया कि मध्यस्थ (Arbitrator) के पास एक्ट, 1996 की धारा 31(7)(b) के तहत अनुबंध में तय की गई दर पर भरोसा करने का विवेक है। उन्होंने जोर देकर कहा कि यह एक “उच्च जोखिम वाला लेनदेन” था, क्योंकि यह ऋण एक पिछले कर्ज को चुकाने के लिए लिया गया था जिस पर अपीलकर्ता पहले ही डिफॉल्ट कर चुके थे। उन्होंने नेदुम्पिल्ली फाइनेंस कंपनी लिमिटेड बनाम केरल राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला देते हुए कहा कि राज्य के सूदखोरी कानून (usury statutes) आरबीआई अधिनियम द्वारा शासित एनबीएफसी (NBFCs) पर लागू नहीं होते।

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सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण

सुप्रीम कोर्ट ने मुख्य रूप से चार कानूनी पहलुओं का विश्लेषण किया: पोस्ट-अवार्ड ब्याज की अनिवार्यता, धारा 34 के तहत हस्तक्षेप का दायरा, लोक नीति का प्रश्न, और यूशुरियस लोन्स एक्ट की प्रयोज्यता।

1. पोस्ट-अवार्ड ब्याज (Post-Award Interest) का अधिदेश कोर्ट ने आर.पी. गर्ग बनाम महाप्रबंधक, दूरसंचार विभाग और मॉर्गन सिक्योरिटीज एंड क्रेडिट्स प्रा. लिमिटेड बनाम वीडियोकॉन इंडस्ट्रीज लिमिटेड के अपने हालिया फैसलों का हवाला देते हुए धारा 31(7)(b) की व्याख्या की। पीठ ने कहा:

“धारा 31(7)(b) के तहत पोस्ट-अवार्ड ब्याज देना अनिवार्य है। मध्यस्थ न्यायाधिकरण के पास केवल ब्याज की दर तय करने का विवेक है। यदि मध्यस्थ कोई ब्याज दर तय नहीं करता है, तो वैधानिक दर लागू होगी।”

2. न्यायिक हस्तक्षेप का सीमित दायरा पीठ ने दोहराया कि धारा 34 और धारा 37 की कार्यवाही में सबूतों का पुनर्मूल्यांकन (re-appreciation of evidence) प्रतिबंधित है। स्वान गोल्ड माइनिंग लिमिटेड जैसे मामलों का हवाला देते हुए, कोर्ट ने कहा कि चूंकि लोन एग्रीमेंट की वास्तविकता पर मध्यस्थ और निचली अदालतों के निष्कर्ष एक समान (concurrent) हैं, इसलिए इसमें हस्तक्षेप का कोई औचित्य नहीं है।

3. ब्याज दर और लोक नीति (Public Policy) अपीलकर्ता की इस दलील पर कि 24% ब्याज ‘लोक नीति’ के खिलाफ है, कोर्ट ने कहा कि वाणिज्यिक नैतिकता संदर्भ पर निर्भर करती है। जस्टिस पारदीवाला ने फैसले में लिखा:

“ब्याज की दर को लेकर कोई भी विवाद स्पष्ट रूप से ‘भारत की लोक नीति’ के उल्लंघन के आधार पर चुनौती के दायरे से बाहर है, जब तक कि यह स्पष्ट न हो कि दी गई ब्याज दर इतनी अनुचित और तर्कहीन है कि वह न्यायालय की अंतरात्मा को झकझोर दे…”

कोर्ट ने माना कि उच्च ब्याज दर उधारकर्ता के पहले से कर्ज में होने के कारण ऋणदाता द्वारा उठाए गए “डिफॉल्ट के जोखिम” को दर्शाती है।

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4. यूशुरियस लोन्स एक्ट, 1918 की अप्रयोज्यता सुप्रीम कोर्ट ने इस दलील को खारिज कर दिया कि यूशुरियस लोन्स एक्ट, 1918 के तहत यह लेनदेन शून्य है। कोर्ट ने स्पष्ट किया:

“यूशुरियस लोन्स एक्ट, 1918… एक अलग युग में लागू किया गया था। यह तय करने की अदालत की शक्ति कि क्या ब्याज अत्यधिक है, उसे बाद के अधिनियम, यानी एक्ट, 1996 के तहत अदालतों को प्रदान की गई पूर्ण शक्तियों (plenary powers) के आगे झुकना होगा।”

निर्णय

सुप्रीम कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि अपीलकर्ता अपने दायित्वों को निभाने में लगातार विफल रहे हैं और प्रतिवादी वर्षों से अपनी धनराशि से वंचित रहा है। तदनुसार, कोर्ट ने अपील खारिज कर दी और आर्बिट्रेशन अवार्ड को बरकरार रखने वाले हाईकोर्ट के फैसले की पुष्टि की।

केस विवरण:

  • शीर्षक: मैसर्स श्री लक्ष्मी होटल प्रा. लिमिटेड और अन्य बनाम श्रीराम सिटी यूनियन फाइनेंस लिमिटेड और अन्य
  • साइटेशन: 2025 INSC 1327
  • कोरम: जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और जस्टिस के.वी. विश्वनाथन

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