किराया तय होने के बाद, लंबित मुकदमा ‘जानबूझकर डिफॉल्ट’ से बचने का आधार नहीं हो सकता: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने के. सुब्रमण्यम (मृत) बनाम एम/एस कृष्णा मिल्स प्रा. लिमिटेड. मामले में एक किरायेदार के उत्तराधिकारियों द्वारा दायर अपील को खारिज करते हुए बेदखली के एक आदेश को बरकरार रखा है। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि ‘उचित किराए’ (fair rent) के निर्धारण को चुनौती देने वाली कार्यवाही का लंबित होना, किरायेदार को बढ़े हुए किराए का भुगतान न करने पर ‘जानबूझकर डिफॉल्ट’ (wilful default) से नहीं बचाता है, खासकर तब, जब किरायेदार ने किराया निर्धारण के आदेश पर कोई ‘स्थगन आदेश’ (stay order) प्राप्त नहीं किया हो।

यह अपील (सिविल अपील संख्या 2561, 2025) जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस मनमोहन की पीठ के समक्ष सूचीबद्ध थी। इसमें मद्रास हाईकोर्ट के 2021 के उस आदेश को चुनौती दी गई थी, जिसने बेदखली के एक अपीलीय आदेश की पुष्टि की थी।

मामले की पृष्ठभूमि

यह विवाद कोयंबटूर, तमिलनाडु में स्थित एक गोदाम से संबंधित है, जिसका स्वामित्व प्रतिवादी एम/एस कृष्णा मिल्स प्रा. लिमिटेड. के पास है और इसे के. सुब्रमण्यम (अब मृतक) को पट्टे पर दिया गया था। शुरुआत में, मासिक किराए की राशि को लेकर विवाद था; मकान मालिक का दावा 48,000/- रुपये था जबकि किरायेदार 33,000/- रुपये का भुगतान कर रहा था।

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2004 में, मकान मालिक ने उचित किराया तय करने के लिए एक आवेदन (RCOP No. 44 of 2005) दायर किया। 10 जनवरी, 2007 को, रेंट कंट्रोलर ने 1 फरवरी, 2005 से प्रभावी होकर उचित किराया 2,43,600/- रुपये प्रति माह तय कर दिया।

इसके बाद, 17 जुलाई, 2007 को, मकान मालिक ने नया तय किया गया किराया न चुकाने के आधार पर ‘जानबूझकर डिफॉल्ट’ के लिए बेदखली का मुकदमा (RCOP No. 134 of 2007) दायर किया।

किरायेदार ने किराया निर्धारण के खिलाफ अपील की, जिसे 20 फरवरी, 2008 को रेंट कंट्रोल अपीलेट अथॉरिटी ने खारिज कर दिया। इसके बाद किरायेदार ने हाईकोर्ट में एक पुनरीक्षण आवेदन दायर किया। हाईकोर्ट ने एक अंतरिम आदेश पारित करते हुए किरायेदार को 25,00,000/- रुपये जमा करने और 75,000/- रुपये प्रति माह का भुगतान करने का निर्देश दिया, लेकिन फैसले में यह उल्लेख किया गया कि अदालत ने “आदेश पर कोई रोक नहीं लगाई थी।”

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9 सितंबर, 2011 को, हाईकोर्ट ने उचित किराये को घटाकर 2,37,500/- रुपये प्रति माह कर दिया। इसके खिलाफ किरायेदार द्वारा दायर विशेष अनुमति याचिकाओं (SLPs) को सुप्रीम कोर्ट ने 23 मार्च, 2012 को खारिज कर दिया। उस आदेश में किरायेदार को किश्तों में बकाया भुगतान करने का निर्देश दिया गया, साथ ही यह “स्पष्ट किया गया कि ऐसी व्यवस्था लंबित कार्यवाही में पक्षकारों के अधिकारों पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना (without prejudice) होगी।” किरायेदार ने 11 जनवरी, 2013 को बकाये का अंतिम भुगतान किया।

इस बीच, बेदखली की कार्यवाही में, रेंट कंट्रोलर ने पहले 2019 में याचिका खारिज कर दी थी। लेकिन 25 फरवरी, 2020 को, अपीलीय प्राधिकरण (प्रधान सब-ऑर्डिनेट जज, कोयंबटूर) ने इसे पलट दिया और यह माना कि “विशेष अनुमति याचिकाओं के खारिज होने के बाद भी किश्तों में भुगतान करना, जानबूझकर किया गया डिफॉल्ट माना जाएगा।” 22 जून, 2021 को हाईकोर्ट द्वारा इस बेदखली के आदेश की पुष्टि की गई, जिसके खिलाफ वर्तमान अपील दायर की गई थी।

अपीलकर्ताओं की दलीलें

अपीलकर्ताओं की ओर से पेश वरिष्ठ वकील श्री जयदीप गुप्ता ने तर्क दिया कि बेदखली की याचिका अस्थिर थी क्योंकि किराए की राशि पर एक वास्तविक विवाद (bona fide dispute) था। उन्होंने तर्क दिया कि किरायेदार का आचरण जानबूझकर नहीं था, क्योंकि उन्होंने विभिन्न अदालती मंचों के अंतरिम आदेशों का पालन किया था। चोरडिया ऑटोमोबाइल्स बनाम एस मूसा का हवाला देते हुए, यह तर्क दिया गया कि जब राशि विवादित हो तो अंतरिम व्यवस्था का पालन करना उचित था।

श्री गुप्ता ने विशालाक्षी अम्मल बनाम टी.बी. सत्यनारायण का हवाला देते हुए कहा कि उचित किराया देने की देयता तभी उत्पन्न होती है जब आदेश ‘अंतिम’ (finality) हो जाता है। उन्होंने रूपा अशोक हुर्रा बनाम अशोक हुर्रा का जिक्र करते हुए तर्क दिया कि इस मामले में 23 मार्च, 2012 को सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद ही अंतिम निर्णय हुआ।

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प्रतिवादी की दलीलें

इसके विपरीत, प्रतिवादी-मकान मालिक की ओर से वरिष्ठ वकील सुश्री वी. मोहना ने तर्क दिया कि यह डिफॉल्ट स्पष्ट रूप से जानबूझकर किया गया था, क्योंकि उचित किराया 10 जनवरी, 2007 को तय किया गया था, लेकिन किरायेदार ने 11 जनवरी, 2013 को बकाया चुकाया।

उन्होंने गिरधारीलाल चांडक एंड ब्रदर्स बनाम मेहंदी इस्पहानी के हाईकोर्ट के फैसले पर बहुत भरोसा किया और तर्क दिया कि “केवल अपील दायर करने से यह स्वतः ही रोक नहीं मानी जाती।” उन्होंने बताया कि किरायेदार ने उचित किराया तय करने के आदेश पर कभी कोई रोक नहीं लगवाई। सुश्री मोहना ने यह भी कहा कि 2012 के सुप्रीम कोर्ट के आदेश में ‘बिना किसी पूर्वाग्रह के’ (without prejudice) खंड ने मकान मालिक के बेदखली की कार्यवाही जारी रखने के अधिकार को स्पष्ट रूप से सुरक्षित रखा था।

सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण और निर्णय

सुप्रीम कोर्ट ने इस सवाल का विश्लेषण करते हुए कि क्या हाईकोर्ट ने बेदखली के आदेश को सही ठहराया, प्रतिवादी के तर्कों से सहमति व्यक्त की।

पीठ ने पाया कि अपीलकर्ताओं की यह दलील कि लंबित कार्यवाही के कारण अनिश्चितता थी, “किसी काम की नहीं” (of no avail) थी। फैसले में कहा गया कि 2007 में किराया तय होने के बावजूद, किरायेदार ने “न तो अपीलीय और न ही पुनरीक्षण मंचों के समक्ष उक्त आदेश पर रोक की मांग की और न ही कोई स्थगन आदेश प्राप्त किया।”

कोर्ट ने गिरधारीलाल चांडक मामले में चर्चा किए गए सिद्धांत का समर्थन किया, जो खुद सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश XLI, नियम 5(1) पर निर्भर करता है, कि “अपील किसी डिक्री या आदेश के तहत कार्यवाही पर रोक के रूप में काम नहीं करेगी।” कोर्ट ने माना कि किरायेदार का आचरण “देयता के बारे में वास्तविक संदेह के साथ मेल नहीं खाता।”

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पीठ ने निष्कर्ष निकाला, “यह स्पष्ट है कि अपीलकर्ताओं ने किराए के भुगतान में डिफॉल्ट किया और ऐसा डिफॉल्ट, तथ्यों और परिस्थितियों में, निस्संदेह एक जानबूझकर की गई चूक है।”

कोर्ट ने सुंदरम पिल्लई मामले का विश्लेषण करते हुए दो महीने के नोटिस की कमी के संबंध में अपीलकर्ताओं के तर्क को भी संबोधित किया और माना कि इस तर्क को स्वीकार नहीं किया जा सकता।

कोर्ट ने यह भी माना कि 2012 के आदेश में ‘बिना किसी पूर्वाग्रह के’ (without prejudice) वाक्यांश का मतलब था कि मकान मालिक के बेदखली के अधिकार को माफ नहीं किया गया था। कोर्ट ने रूपा अशोक हुर्रा से ‘अंतिम निर्णय’ (finality) के तर्क को अलग करते हुए कहा, “यह ऐसी स्थिति में लागू नहीं होगा जहां एक पक्ष, पैसे बकाया होने के बावजूद… बेहतर फोरम से संपर्क करता है, लेकिन ऐसे निर्धारण पर रोक लगाने की मांग नहीं करता।”

अपील को “गुणहीन” (unmeritorious) पाते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने इसे खारिज कर दिया। हालांकि, अपीलकर्ताओं को पंद्रह दिनों के भीतर सामान्य शपथ-पत्र दाखिल करने की शर्त पर “जगह खाली करने और कब्जा सौंपने के लिए इस आदेश की तारीख से छह महीने का समय दिया गया।”

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