दिल्ली हाईकोर्ट ने 8 अक्टूबर, 2025 को दिए एक फैसले में, नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स (एनआई) एक्ट की धारा 138 के तहत दायर दो आपराधिक शिकायतों को रद्द कर दिया है। हाईकोर्ट ने यह माना कि शिकायतकर्ता कंपनी को रजिस्टर ऑफ कंपनीज (ROC) से “स्ट्रक-ऑफ” (हटा दिया गया) कर दिया गया था और शिकायतें दर्ज करने से पहले ही वह भंग हो चुकी थी, इसलिए ये मामले सुनवाई योग्य नहीं थे।
न्यायमूर्ति अरुण मोंगा ने (CRL.M.C. 7534/2023 और CRL.M.C. 7559/2023) मामलों में आरोपी कंपनी के निदेशकों, श्री कृष्ण लाल गुलाटी और एक अन्य द्वारा दायर याचिकाओं को स्वीकार कर लिया। हाईकोर्ट ने निचली अदालत (मजिस्ट्रेट कोर्ट) के 2022 के उस आदेश को भी रद्द कर दिया, जिसने याचिकाकर्ताओं के आवेदन को खारिज कर दिया था और चेक बाउंस मामलों को आगे बढ़ाने की अनुमति दी थी।
मामले की पृष्ठभूमि
यह पूरा विवाद “राघव आदित्य चिट्स प्राइवेट लिमिटेड” नामक कंपनी द्वारा “मेसर्स स्पेस सर्विसेज (इंडिया) प्राइवेट लिमिटेड” और उसके निदेशकों (याचिकाकर्ताओं) के खिलाफ दायर दो आपराधिक शिकायतों (CC No. 2619/2020 और CC No. 4735/2020) से उत्पन्न हुआ था।
पहली शिकायत ₹1,93,00,000 के एक चेक (दिनांक 10.11.2019) से संबंधित थी, जो 27.11.2019 को dishonour (अनादरित) हो गया। दूसरी शिकायत ₹1,76,00,000 के चेक (दिनांक 10.10.2019) से संबंधित थी, जो 06.12.2019 को अनादरित हुआ। दोनों मामलों में, चेक “Contact Drawer/Drawee Bank and Present Again” (ड्रॉअर/ड्रॉई बैंक से संपर्क करें और फिर से प्रस्तुत करें) की टिप्पणी के साथ वापस आ गए। 23.12.2019 को कानूनी नोटिस जारी किए गए और भुगतान न होने पर, 2020 और 2021 में शिकायतें दर्ज की गईं, जिसके आधार पर याचिकाकर्ताओं को समन जारी किया गया।
याचिकाकर्ताओं का तर्क था कि ये चेक 2011 में जारी किए गए “सिक्योरिटी चेक” थे, जिनका कथित तौर पर दुरुपयोग किया गया।
सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह था कि शिकायतकर्ता कंपनी, राघव आदित्य चिट्स प्राइवेट लिमिटेड, को 08.08.2018 को ही रजिस्ट्रार ऑफ कंपनीज (ROC), दिल्ली और हरियाणा द्वारा रजिस्टर से हटा दिया गया था (struck off)। इस प्रकार, चेक प्रस्तुत करने या 2020 में शिकायतें दर्ज करने से पहले ही कंपनी का कानूनी अस्तित्व समाप्त हो चुका था।
याचिकाकर्ताओं ने विद्वान मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट (MM), राउज एवेन्यू कोर्ट्स के समक्ष आवेदन दायर कर शिकायतों को गैर-सुनवाई योग्य बताते हुए खारिज करने की मांग की। हालांकि, Ld. MM ने 22.12.2022 के आदेश से इन आवेदनों को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि संज्ञान लेने के बाद रखरखाव (maintainability) पर निर्णय नहीं लिया जा सकता, और मामलों को धारा 251 CrPC के तहत नोटिस फ्रेम करने के चरण में भेज दिया। इसी आदेश को हाईकोर्ट में चुनौती दी गई थी।
याचिकाकर्ताओं की दलीलें
याचिकाकर्ताओं ने हाईकोर्ट के समक्ष तर्क दिया कि जब 2020 में शिकायतें दायर की गईं, तब शिकायतकर्ता कंपनी (प्रतिवादी संख्या 2) न तो “विधिक व्यक्ति” (juristic person) थी और न ही “कानूनी इकाई” (legal entity), क्योंकि उसे 08.08.2018 के आरओसी नोटिस द्वारा पहले ही भंग कर दिया गया था।
यह दलील दी गई कि भंग हो चुकी कंपनी के पूर्व-निदेशकों ने इस तथ्य को छुपाया और कंपनी को चालू (operational) बताकर अदालत के समक्ष गलतबयानी की। नतीजतन, इस “अस्तित्वहीन इकाई” के नाम पर जारी किए गए कोई भी कानूनी नोटिस या शिकायतें अमान्य थीं, और उनसे कार्रवाई का कोई वैध कारण उत्पन्न नहीं हो सकता था।
याचिकाकर्ताओं ने कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 248(5) और 250 का हवाला देते हुए तर्क दिया कि केवल रजिस्ट्रार ऑफ कंपनीज को ही एक भंग कंपनी की बकाया राशि वसूल करने का अधिकार है। यह तर्क दिया गया कि प्रतिनिधियों को अधिकृत करने वाले कोई भी बोर्ड प्रस्ताव “झूठे और मनगढ़ंत” थे, क्योंकि निदेशक पहले ही पद धारण करना बंद कर चुके थे।
इसके अलावा, यह तर्क दिया गया कि विघटन (dissolution) पर, कंपनी की सभी संपत्तियां और बैंक खाते “बोना वैकेंटिया” (bona vacantia) यानी लावारिस संपत्ति बन गए, जो सरकार में निहित हो गए। उन्होंने वित्त मंत्रालय की अधिसूचनाओं (दिनांक 05.09.2017) का भी हवाला दिया, जो ‘स्ट्रक-ऑफ’ कंपनियों के पूर्व-निदेशकों को बैंक खाते संचालित करने से रोकती हैं।
हाईकोर्ट का विश्लेषण और टिप्पणियाँ
न्यायमूर्ति अरुण मोंगा ने याचिकाकर्ताओं की दलीलों में योग्यता पाई और कहा कि निचली अदालत ने 22.12.2022 के विवादित आदेश को पारित करने में “कानूनी अनियमितता” (irregularity in law) की है।
अदालत ने सुनवाई के दौरान शिकायतकर्ता (प्रतिवादी संख्या 2) की अनुपस्थिति पर भी गौर किया और टिप्पणी की: “ऐसा लगता है कि इस न्यायालय की कोऑर्डिनेट बेंच द्वारा पारित 13.10.2023 के विस्तृत आदेश के मद्देनजर, शिकायतकर्ता/प्रतिवादी संख्या 2 ने इस मुकदमे की निरर्थकता को एक पूर्ण सत्य के रूप में स्वीकार कर लिया है।”
फैसले में कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 248(5) (नोटिस पर कंपनी का विघटन) और धारा 250 (विघटित अधिसूचित कंपनी का प्रभाव) को उद्धृत किया गया। अदालत ने कहा कि धारा 250 के तहत, एक भंग कंपनी “एक कंपनी के रूप में काम करना बंद कर देगी और उसका निगमन प्रमाणपत्र… रद्द माना जाएगा,” सिवाय बकाया वसूली या देनदारियों के निर्वहन जैसे सीमित उद्देश्यों के।
अदालत ने वित्त मंत्रालय के वित्तीय सेवा विभाग द्वारा जारी 05.09.2017 की एक अधिसूचना पर बहुत भरोसा किया। फैसले में इस बात पर प्रकाश डाला गया कि यह अधिसूचना स्पष्ट करती है कि धारा 248(5) के तहत ‘स्ट्रक-ऑफ’ कंपनियां “कानून में अस्तित्वहीन हो जाती हैं,” उनके निदेशक “पूर्व निदेशक” बन जाते हैं, और वे “ऐसी कंपनियों के बैंक खातों को तब तक संचालित नहीं कर पाएंगे जब तक कि ऐसी कंपनियों को कंपनी अधिनियम की धारा 252 के तहत कानूनी रूप से बहाल नहीं किया जाता।”
इसे मामले के तथ्यों पर लागू करते हुए, अदालत ने कहा कि चेक, कानूनी नोटिस और शिकायतें “ये सभी कार्रवाइयां कंपनी के विघटन के बाद हुईं।”
अपनी मुख्य टिप्पणी (पैरा 12) में, हाईकोर्ट ने माना: “एक बार जब किसी कंपनी को ‘स्ट्रक-ऑफ’ कर दिया जाता है और वह भंग हो जाती है, तो वह अपना विधिक व्यक्तित्व (juristic personality) खो देती है, जिससे उसकी ओर से किया गया कोई भी कार्य ‘शून्य से अमान्य’ (void ab initio) हो जाता है, जब तक कि कंपनी को धारा 252 के तहत बहाल नहीं किया जाता। नतीजतन, ऐसी भंग कंपनी के नाम पर या उसके द्वारा जारी किए गए चेक को कानूनी रूप से लागू करने योग्य लिखत (legally enforceable instrument) नहीं माना जा सकता, क्योंकि कानून में कोई वैध ड्रॉअर या खाताधारक मौजूद नहीं है।”
अदालत ने निष्कर्ष निकाला: “नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट की धारा 138 के तहत कार्यवाही, जो एक वैध रूप से जारी किए गए चेक की पूर्व-धारणा पर आधारित है, इसलिए, ऐसी परिस्थितियों में कायम नहीं रखी जा सकती।”
यह पाते हुए कि मुकदमे को जारी रखने से “कोई कानूनी उद्देश्य पूरा नहीं होगा,” न्यायमूर्ति मोंगा ने माना कि “एक भंग इकाई द्वारा या उसके खिलाफ आपराधिक मुकदमा नहीं चलाया जा सकता।” अदालत ने इसे “न्याय की हानि को रोकने के लिए अंतर्निहित शक्तियों का प्रयोग करने के लिए एक उपयुक्त मामला” माना।
निर्णय
हाईकोर्ट ने दोनों याचिकाओं को स्वीकार कर लिया और आपराधिक शिकायत मामलों (CC No. 2619/2020 और CC No. 4753/2020) को रद्द कर दिया। निचली अदालत के 22.12.2022 के विवादित आदेश को भी रद्द कर दिया गया।
हालांकि, अदालत ने “प्रतिवादी संख्या 2/शिकायतकर्ता के हित-उत्तराधिकारियों” को यह स्वतंत्रता दी कि “यदि कानून अनुमति देता है, तो वे किसी अन्य वैकल्पिक उपाय का सहारा लेकर आरोपी कंपनी के प्रमोटरों/निदेशकों/याचिकाकर्ताओं के खिलाफ कार्रवाई कर सकते हैं।”




