सजा में संतुलन जरूरी; नरमी से विश्वास घटता, कठोरता से अन्याय होता है: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में सज़ा देने के न्यायिक सिद्धांत पर जोर देते हुए कहा है कि अदालतों को सज़ा तय करते समय एक संतुलित और सैद्धांतिक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। कोर्ट ने कहा कि अत्यधिक नरमी से न्याय प्रणाली में जनता का विश्वास कम होता है, जबकि अत्यधिक कठोरता अन्याय को जन्म दे सकती है।

यह टिप्पणी करते हुए, जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की बेंच ने गैर इरादतन हत्या के एक मामले में कर्नाटक हाईकोर्ट द्वारा दी गई आठ साल के कठोर कारावास की सजा को बरकरार रखा और सजा में और कमी करने की अपील को खारिज कर दिया।

यह अपील कोट्रेश @ कोट्रप्पा द्वारा दायर की गई थी, जिसे एक विवाद में मध्यस्थता करने वाले व्यक्ति की हत्या के लिए भारतीय दंड संहिता (IPC), 1860 की धारा 304 पार्ट-II के तहत दोषी ठहराया गया था।

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मामले की पृष्ठभूमि

मामले की शुरुआत एक पारिवारिक विवाद से हुई थी। अपीलकर्ता की चचेरी बहन ‘C’ के साथ मृतक ‘S’ के बड़े भाई ‘V’ ने कथित तौर पर बलात्कार किया था, जिससे उसे एक बच्चा भी हुआ था। अपीलकर्ता का परिवार इस बात पर जोर दे रहा था कि ‘V’ को ‘C’ से शादी करनी चाहिए। इस मुद्दे को सुलझाने की कोशिशें घटना से एक दिन पहले विफल हो गई थीं।

फैसले के अनुसार, अपराध वाले दिन अपीलकर्ता और उसके परिवार के सदस्य ‘V’ के घर गए, जहाँ दोनों पक्षों में कहासुनी और हाथापाई शुरू हो गई। मृतक ‘S’, जिसे फैसले में “पूरी तरह से निर्दोष व्यक्ति” बताया गया है, ने बीच-बचाव कर शांति स्थापित करने का प्रयास किया। इसी दौरान, अपीलकर्ता पास के एक घर से कुल्हाड़ी लाया और ‘S’ की गर्दन पर जानलेवा वार कर दिया, जिससे उसकी मृत्यु हो गई।

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इस मामले में सेशंस कोर्ट ने 18 जनवरी, 2020 को अपीलकर्ता को गैर इरादतन हत्या का दोषी पाते हुए दस साल के कठोर कारावास की सजा सुनाई थी। बाद में, कर्नाटक हाईकोर्ट ने 8 फरवरी, 2024 को अपने फैसले में दोषसिद्धि को बरकरार रखा, लेकिन सजा को घटाकर आठ साल कर दिया था। इसी फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की गई थी।

सुप्रीम कोर्ट के समक्ष दलीलें

अपीलकर्ता की ओर से पेश हुए वरिष्ठ वकील श्री राहुल कौशिक ने तर्क दिया कि घटना के समय अपीलकर्ता की उम्र महज 20 साल थी और अपनी बहन की स्थिति के कारण वह “अपने होश पर काबू नहीं रख सका।” उन्होंने दलील दी कि यह कृत्य पूर्व नियोजित नहीं था और अपीलकर्ता ढाई साल जेल में काट चुका है, इसलिए उसकी सजा को काटी जा चुकी अवधि तक कम कर दिया जाए।

वहीं, शिकायतकर्ता की ओर से न्याय मित्र (Amicus Curiae) के रूप में नियुक्त वरिष्ठ वकील श्री अशोक गौड़ ने सजा में किसी भी कमी का पुरजोर विरोध किया। उन्होंने तर्क दिया कि यह हमला अचानक नहीं, बल्कि पूर्व नियोजित था। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि 23 वर्षीय मृतक पूरी तरह से निर्दोष था और केवल शांति स्थापित करने की कोशिश कर रहा था। श्री गौड़ ने यह भी कहा कि सबूतों को देखते हुए सेशंस कोर्ट को अपीलकर्ता को हत्या (धारा 302) के लिए दोषी ठहराना चाहिए था।

कोर्ट का विश्लेषण और फैसला

सुप्रीम कोर्ट ने दोनों पक्षों की दलीलों और रिकॉर्ड पर मौजूद सबूतों का विश्लेषण करने के बाद कहा कि इस मामले में और नरमी की कोई गुंजाइश नहीं है। बेंच ने माना कि अपीलकर्ता अपनी बहन की स्थिति को लेकर “हताश” हो सकता है, लेकिन इस बात पर जोर दिया कि पीड़ित की इसमें कोई भूमिका नहीं थी और वह निर्दोष था। कोर्ट ने कहा, “एक निर्दोष व्यक्ति को बिना किसी उकसावे के अपीलकर्ता द्वारा मौत के घाट उतार दिया गया।”

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कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट द्वारा “गंभीर और अचानक उकसावे” की दलील को स्वीकार करने पर भी सवाल उठाया और कहा, “जब हमने यह निष्कर्ष निकाल लिया है कि कोई उकसावा नहीं था, तो आईपीसी की धारा 300 का अपवाद 1 निश्चित रूप से लागू नहीं होता था।”

राज बाला बनाम हरियाणा राज्य मामले में अपने ही एक पुराने फैसले का हवाला देते हुए, कोर्ट ने सज़ा के सिद्धांतों को दोहराया: “सजा सुनाते समय, अदालत का यह कर्तव्य है कि वह समाज की सामूहिक पुकार का जवाब दे… अदालत को अपने विवेक का प्रयोग इस तरह से नहीं करना चाहिए, जिसके परिणामस्वरूप धैर्य में निहित अपेक्षा नष्ट हो जाए, जो ‘धैर्य का बेहतरीन हिस्सा’ है।”

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अंततः कोर्ट ने यह निष्कर्ष निकाला कि हाईकोर्ट ने पहले ही सजा को दस साल से घटाकर आठ साल करके पर्याप्त नरमी दिखाई है। बेंच ने अपने फैसले में कहा, “उपरोक्त फैसलों और तथ्यात्मक मैट्रिक्स पर विचार करने के बाद, हमारी सुविचारित राय है कि हाईकोर्ट द्वारा दी गई सजा में किसी भी हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है और अपीलकर्ता किसी भी राहत का हकदार नहीं है।”

इस टिप्पणी के साथ कोर्ट ने अपील खारिज कर दी। हालांकि, कोर्ट ने स्पष्ट किया कि अपीलकर्ता, यदि पात्र हो, तो कर्नाटक राज्य की छूट नीति (remission policy) के तहत समय से पहले रिहाई के लिए आवेदन करने का हकदार होगा।

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