सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को बोधगया मंदिर अधिनियम, 1949 की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई से इनकार कर दिया और याचिकाकर्ता को संबंधित हाईकोर्ट के समक्ष जाने की सलाह दी।
न्यायमूर्ति एम.एम. सुन्दरेश और न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन की पीठ ने याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा कि याचिकाकर्ता द्वारा मांगी गई राहत—1949 के अधिनियम को असंवैधानिक घोषित करना—पहले संविधानिक ढांचे के तहत संबंधित हाईकोर्ट द्वारा तय की जानी चाहिए।
पीठ ने स्पष्ट किया, “हम संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत इस याचिका पर सुनवाई करने के इच्छुक नहीं हैं। हालांकि, याचिकाकर्ता को हाईकोर्ट का रुख करने की स्वतंत्रता दी जाती है।”

बोधगया मंदिर अधिनियम, 1949 को बिहार स्थित महाबोधि मंदिर परिसर के सुचारु प्रबंधन और प्रशासन के लिए बनाया गया था। यह मंदिर वह स्थल है जहां गौतम बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति हुई थी और इसे यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल का दर्जा प्राप्त है। मंदिर परिसर में वज्रासन (डायमंड थ्रोन), पवित्र बोधि वृक्ष, छह अन्य पवित्र स्थल, तथा परिसर के बाहर स्थित कमल तालाब शामिल हैं।
याचिकाकर्ता के वकील ने दलील दी कि यह अधिनियम संविधानिक अधिकारों का उल्लंघन करता है और इसे निरस्त किया जाना चाहिए। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया कि ऐसा कोई मुद्दा उठाने के लिए हाईकोर्ट ही उपयुक्त मंच है।
यह याचिका ऐसे समय में दाखिल की गई है जब महाबोधि महाविहार के प्रबंधन को लेकर राजनीतिक चर्चाएं तेज हुई हैं। अप्रैल माह में राष्ट्रीय लोक मोर्चा के प्रमुख और पूर्व केंद्रीय मंत्री उपेंद्र कुशवाहा ने इस अधिनियम में संशोधन की मांग की थी और मंदिर के प्रबंधन का अधिकार पूर्णतः बौद्ध समुदाय को दिए जाने की वकालत की थी।
वर्तमान में यह अधिनियम मंदिर प्रबंधन समिति में हिंदुओं और बौद्धों दोनों को स्थान देता है, जिसे लेकर कुछ बौद्ध संगठनों द्वारा विरोध भी जताया गया है और पूर्ण नियंत्रण की मांग की गई है।
सुप्रीम कोर्ट द्वारा याचिका को खारिज करने के बाद अब यह मामला पटना हाईकोर्ट में चुनौती के लिए खुला रहेगा, जिसे बोधगया पर क्षेत्रीय अधिकार प्राप्त है।