कौन करेगा फंड की व्यवस्था? बॉम्बे हाईकोर्ट ने जूनियर वकीलों को ₹5,000 मासिक स्टाइपेंड देने की वित्तीय व्यावहारिकता पर उठाए सवाल

बॉम्बे हाईकोर्ट ने बुधवार को महाराष्ट्र के जूनियर वकीलों को ₹5,000 प्रतिमाह स्टाइपेंड देने की मांग पर सुनवाई करते हुए वित्तीय व्यवस्था और वैधानिक अधिकार की अनुपस्थिति को लेकर गंभीर सवाल उठाए। पीठ ने स्पष्ट रूप से पूछा, “कौन करेगा फंड की व्यवस्था?”

मुख्य न्यायाधीश आलोक अराधे और न्यायमूर्ति संदीप मारणे की खंडपीठ ने यह टिप्पणी बारह युवा वकीलों द्वारा दायर जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान की। याचिकाकर्ताओं ने मांग की है कि पहले तीन वर्षों तक जिन वकीलों की वार्षिक आय ₹1 लाख से कम है, उन्हें मासिक ₹5,000 की वित्तीय सहायता दी जाए।

हालांकि पीठ ने याचिकाकर्ताओं की कठिनाइयों को समझने की बात कही, परंतु यह भी जोड़ा कि इस प्रकार की सहायता के लिए कोई स्पष्ट वैधानिक अधिकार नहीं दिखता।

“वैधानिक अधिकार क्या है? व्यक्तिगत रूप से हम आपके साथ हैं… लेकिन मूल रूप से, यह देगा कौन? बार काउंसिल के पास कोई फंड नहीं है। क्या आप फंड देंगे? इसमें जनहित का कोई तत्व नहीं है। समाज को युवा वकीलों के स्टाइपेंड से क्या लेना देना?” कोर्ट ने कहा।

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याचिकाकर्ताओं ने बार काउंसिल ऑफ इंडिया (BCI) की अनुशंसा का हवाला दिया, जिसमें ग्रामीण क्षेत्रों में ₹15,000 और शहरी क्षेत्रों में ₹20,000 स्टाइपेंड देने की बात कही गई है। साथ ही दिल्ली, तमिलनाडु, केरल, झारखंड और आंध्र प्रदेश में लागू योजनाओं का भी उल्लेख किया गया।

मुख्य न्यायाधीश अराधे ने कहा:

“सिर्फ ₹15,000 क्यों? हमें तो लगता है मुंबई जैसे शहर में ₹45,000 मिलना चाहिए। लेकिन ये पैसा आएगा कहां से?”

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बार काउंसिल ऑफ महाराष्ट्र एंड गोवा (BCMG) ने अपने उत्तर में बताया कि इस योजना को लागू करने में हर वर्ष लगभग ₹155 करोड़ की लागत आएगी। BCMG के वकील ने कहा कि कुछ अन्य राज्यों के विपरीत महाराष्ट्र सरकार ने अब तक ऐसी किसी योजना के लिए आर्थिक सहायता नहीं दी है, हालांकि एक प्रस्तुति भेजी गई थी।

यह याचिका वर्ष 2022 में वकीलों अजित देशपांडे और अक्षय देसाई सहित अन्य ने दायर की थी। इसमें तर्क दिया गया कि विशेष रूप से कोविड-19 लॉकडाउन के बाद युवा वकीलों को आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है और उन्हें करियर की शुरुआत में वित्तीय समर्थन मिलना चाहिए।

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अंत में, हाईकोर्ट ने इस मामले की अगली सुनवाई दो सप्ताह बाद निर्धारित की है और निर्देश दिया है कि तब तक सभी पक्ष यह स्पष्ट करें कि क्या कोई ऐसा वैधानिक प्रावधान है जो स्टाइपेंड को अनिवार्य बनाता है।

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