मद्रास हाईकोर्ट ने पति को हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13(1)(i-a) के तहत मानसिक क्रूरता के आधार पर तलाक की अनुमति दे दी है। न्यायालय ने कहा कि पत्नी द्वारा अपने पति और ससुर पर लगाए गए यौन प्रकार के असत्यापित आरोप मानसिक क्रूरता के दायरे में आते हैं। यह निर्णय III अतिरिक्त प्रधान पारिवारिक न्यायालय, चेन्नई के उस आदेश को पलटते हुए दिया गया, जिसमें पति की तलाक याचिका खारिज कर दी गई थी और पत्नी की वैवाहिक सहजीवन बहाली याचिका को स्वीकार कर लिया गया था।
न्यायमूर्ति जे. निशा बानु और न्यायमूर्ति आर. शक्तिवेल की खंडपीठ ने CMA सं. 1038 और 1039/2024 में यह निर्णय सुनाया।
पृष्ठभूमि
पति-पत्नी का विवाह 16 सितंबर 2015 को संपन्न हुआ था और 27 जुलाई 2016 को उनके यहां एक पुत्र का जन्म हुआ। वैवाहिक संबंधों में तनाव के बाद पति ने 4 अक्टूबर 2017 को पारिवारिक न्यायालय, चेंगलपट्टू में हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13(1)(i-a) के अंतर्गत तलाक याचिका दायर की, जो बाद में स्थानांतरित होकर H.M.O.P. सं. 2237/2021 के रूप में पुनः क्रमांकित हुई। पत्नी ने 3 फरवरी 2021 को वैवाहिक सहजीवन बहाली की याचिका दायर की, जो H.M.O.P. सं. 702/2021 के रूप में दर्ज की गई।

दोनों याचिकाओं की सुनवाई III अतिरिक्त प्रधान पारिवारिक न्यायालय, चेन्नई द्वारा की गई। 16 दिसंबर 2023 को पारित सामान्य आदेश में पति की तलाक याचिका खारिज कर दी गई और पत्नी की याचिका स्वीकार कर ली गई। इसके विरुद्ध पति ने उच्च न्यायालय में सिविल मिक्स्ड अपीलें दायर कीं।
पति की दलीलें
पति ने आरोप लगाया कि पत्नी ने ससुराल में रहने से इनकार किया, अलग आवास की मांग की, और विवाह के दो वर्षों में मात्र 51 दिन ही साथ रही। वह बार-बार बिना कारण मायके चली जाती थी और पति व उसके परिवार के विरुद्ध अपमानजनक आरोप लगाती थी।
कार्यवाही के दौरान, पत्नी ने 27 अक्टूबर 2017 को मायलापुर महिला पुलिस थाने में अपने ससुर द्वारा यौन उत्पीड़न और पति द्वारा अनैतिक आचरण के आरोप लगाते हुए शिकायत दर्ज कराई (Ex-R5)। शिकायत में पति और ससुर को “भ्रष्ट प्रकृति का व्यक्ति” बताया गया। बाद में 1 नवंबर 2017 को (Ex-R8) उसने उक्त शिकायत यह कहते हुए वापस ले ली कि कुछ बातें “उसकी जानकारी के बिना” लिख दी गईं थीं।
पति ने तर्क दिया कि ये अप्रमाणित और मानहानिकारक आरोप उसकी और उसके पिता की प्रतिष्ठा को ठेस पहुँचाने वाले हैं और इससे उसे गंभीर मानसिक आघात हुआ। उसने व्हाट्सएप स्क्रीनशॉट (Ex-R4) का भी हवाला दिया जिसमें कथित रूप से पत्नी ने अपनी गलती मानी थी।
पत्नी की दलीलें
पत्नी ने अपने अधिवक्ता के माध्यम से कहा कि उसके द्वारा लगाए गए आरोप सत्य थे और उसने इन्हें संबंधित पुलिस थानों में रिपोर्ट किया था। उसने बताया कि पति द्वारा पुनर्मिलन का वादा किए जाने के बाद ही उसने शिकायत वापस ली, लेकिन पति ने वादा निभाया नहीं।
उसने यह भी कहा कि उसकी ओर से वैवाहिक जीवन को फिर से शुरू करने की इच्छा आज भी बनी हुई है, विशेषकर उनके बच्चे के कल्याण के लिए। उसने दावा किया कि पारिवारिक न्यायालय द्वारा उसकी याचिका को सही तरीके से स्वीकार किया गया।
न्यायालय का विश्लेषण और निष्कर्ष
उच्च न्यायालय ने दोनों पक्षों की मौखिक और दस्तावेजी साक्ष्यों का परीक्षण किया। अदालत ने पाया कि पत्नी के केवल 51 दिन साथ रहने के आरोप के समर्थन में कोई विश्वसनीय साक्ष्य नहीं है। गर्भावस्था के दौरान मायके जाने को सामान्य परंपरा मानते हुए इसे क्रूरता नहीं माना गया।
हालाँकि, अदालत ने यौन उत्पीड़न की शिकायत (Ex-R5) की गहन समीक्षा की और पाया कि शिकायत वापस लेने के बाद भी पत्नी ने न तो उसे पुनः शुरू किया और न ही किसी प्रकार से आरोपों को प्रमाणित करने का प्रयास किया।
न्यायालय ने निर्णय के अनुच्छेद 20 में कहा:
“जैसा कि उपर्युक्त रूप से स्पष्ट किया गया है, उत्तरदात्री (पत्नी) द्वारा याचिकाकर्ता (पति) और उसके पिता पर लगाए गए असत्यापित यौन आरोप मानसिक क्रूरता के दायरे में आते हैं, और इस प्रकार याचिकाकर्ता ने हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13(1)(i-a) के अंतर्गत तलाक का मामला स्थापित कर दिया है।”
न्यायालय ने कहा कि ऐसे मानहानिकारक आरोप, जब तक कि वे प्रमाणित न हों, मानसिक पीड़ा का कारण बनते हैं और इस प्रकार वे क्रूरता माने जाते हैं। अदालत ने पिछले निर्णय में दिए गए Ex-P11 में की गई टिप्पणियों को ‘अस्पष्ट और बाध्यकारी नहीं’ बताया।
अंतिम निर्णय
न्यायालय ने यह निष्कर्ष निकाला कि दांपत्य संबंध पूरी तरह से समाप्त हो चुके हैं और पति मानसिक क्रूरता का मामला सिद्ध करने में सफल रहा है। अतः दोनों अपीलों को स्वीकार करते हुए तलाक की डिक्री पारित की गई और पत्नी की वैवाहिक सहजीवन बहाली याचिका खारिज कर दी गई।
न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि तलाक की अनुमति मिलने के बावजूद पत्नी और उनके नाबालिग पुत्र को हिंदू दत्तक और भरण-पोषण अधिनियम, 1956 अथवा अन्य प्रभावी विधियों के अंतर्गत भरण-पोषण का अधिकार बना रहेगा। न्यायालय ने कहा:
“यह निर्णय, जिसमें विवाह विच्छेद की अनुमति दी गई है, उत्तरदात्री के भरण-पोषण के अधिकार को किसी भी प्रकार से प्रभावित नहीं करेगा।”
न्यायालय ने पक्षकारों पर कोई लागत नहीं लगाई और संबंधित सिविल मिक्स्ड पिटीशन को बंद कर दिया।