केंद्र सरकार संसद के आगामी मानसून सत्र में इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाने की संभावना जता रही है। यदि यह प्रस्ताव लाया गया, तो यह स्वतंत्रता के बाद सुप्रीम कोर्ट या हाईकोर्ट के किसी मौजूदा जज के विरुद्ध महाभियोग चलाने का मात्र छठा प्रयास होगा — जो कि भारतीय संविधान में एक अत्यंत दुर्लभ प्रक्रिया है।
संवैधानिक प्रक्रिया: अनुच्छेद 124(4)
अनुच्छेद 124(4) के अनुसार, सुप्रीम कोर्ट के किसी जज को केवल राष्ट्रपति के आदेश द्वारा पद से हटाया जा सकता है, वह भी तब जब संसद के दोनों सदनों में प्रस्ताव पूर्ण बहुमत और उपस्थित सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत से पारित किया गया हो।
भारत में अब तक जजों के विरुद्ध हुए महाभियोग प्रयासों पर एक दृष्टि:

1. न्यायमूर्ति वी. रामास्वामी (1993): सुप्रीम कोर्ट के पहले जज जिनके खिलाफ बहस हुई
न्यायमूर्ति वी. रामास्वामी पर पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रहते हुए वित्तीय अनियमितताओं का आरोप लगा। 10–11 मई 1993 को लोकसभा में उनके खिलाफ महाभियोग पर बहस हुई।
सीपीआई(एम) सांसद सोमनाथ चटर्जी ने इसे “संवैधानिक दायित्व” बताते हुए प्रस्ताव रखा और कहा, “यदि हम आज असफल हुए, तो हम केवल संविधान को ही नहीं, बल्कि जनता की उम्मीदों को भी विफल करेंगे।”
बीजेपी के जसवंत सिंह ने समर्थन करते हुए कहा, “इस प्रस्ताव को नकारना न्यायपालिका में अनुचित आचरण को स्वीकार करना होगा।”
जनता दल के जॉर्ज फर्नांडिस ने इसे “सफाई प्रक्रिया की शुरुआत” कहा।
हालांकि कांग्रेस के कई सांसद अनुपस्थित रहे और मणिशंकर अय्यर ने इसे राजनीतिक बताया। प्रस्ताव को 401 में से 196 मत मिले, 205 सांसदों ने मतदान में भाग नहीं लिया, जिससे यह प्रस्ताव गिर गया।
2. न्यायमूर्ति सौमित्र सेन (2011): प्रस्ताव पारित होने वाले पहले जज
कलकत्ता हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति सेन पर न्यायालय द्वारा नियुक्त रिसीवर रहते हुए धन का गबन करने और अदालत को गुमराह करने का आरोप लगा। जांच समिति ने उन्हें दोषी पाया।
राज्यसभा ने अगस्त 2011 में प्रस्ताव पारित किया। सीपीआई(एम) सांसद सीताराम येचुरी ने कहा, “यह प्रस्ताव संस्थागत अखंडता की रक्षा के लिए है।”
विपक्ष के नेता अरुण जेटली ने कहा, “चेक झूठ नहीं बोलते, व्यक्ति बोल सकते हैं।”
हालांकि, न्यायमूर्ति सेन ने खुद को निर्दोष बताया। लोकसभा में प्रस्ताव से पहले ही उन्होंने इस्तीफा दे दिया, जिससे कार्यवाही रुक गई।
3. न्यायमूर्ति एस. के. गंगेले (2011): जांच के बाद प्रस्ताव खारिज
मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति गंगेले पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया गया था। राज्यसभा के 50 सांसदों ने प्रस्ताव दिया, लेकिन जांच समिति ने पर्याप्त साक्ष्य न मिलने के कारण आरोप खारिज कर दिया और प्रस्ताव गिर गया।
4. न्यायमूर्ति सी. वी. नागर्जुना रेड्डी (2017): समर्थन की कमी से प्रस्ताव असफल
आंध्र प्रदेश और तेलंगाना हाईकोर्ट के जज न्यायमूर्ति रेड्डी पर अधीनस्थ न्यायाधीश से दुर्व्यवहार का आरोप लगा। प्रस्ताव को 50 सांसदों का समर्थन मिला, लेकिन नौ सांसदों ने समर्थन वापस ले लिया, जिससे प्रस्ताव आवश्यक संख्या से नीचे चला गया और गिर गया।
5. मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा (2018): प्रस्ताव खारिज
कांग्रेस और सीपीआई(एम) सहित विपक्षी दलों ने मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव पेश किया, जिसमें “दुर्व्यवहार” और “अक्षमता” के आरोप थे।
हालांकि, राज्यसभा के तत्कालीन सभापति एम. वेंकैया नायडू ने आरोपों को प्रशासनिक कार्य से संबंधित बताते हुए प्रस्ताव को प्रारंभिक स्तर पर ही खारिज कर दिया।
क्या अगला नाम होगा न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा का?
यदि केंद्र सरकार प्रस्ताव लाती है, तो न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा भारतीय न्यायपालिका के उन कुछ जजों में शामिल हो सकते हैं जिनके खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया शुरू की गई हो। हालांकि, अभी तक आरोपों और प्रस्ताव के आधार को सार्वजनिक नहीं किया गया है।
अब तक केवल दो प्रस्ताव संसद में बहस तक पहुंचे हैं और किसी भी मामले में जज को पद से नहीं हटाया जा सका — या तो इस्तीफे से कार्यवाही समाप्त हो गई या राजनीतिक कारणों से बहुमत नहीं मिला। आगामी मानसून सत्र एक बार फिर भारत की न्यायिक जवाबदेही प्रणाली की गंभीर परीक्षा हो सकता है।