जांच अधिकारी के खिलाफ टिप्पणी बिना सुनवाई के की गई, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने विशेष न्यायाधीश के आदेश को रद्द किया

इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ ने पुलिस अधिकारी बलराम चारी दुबे की धारा 482 सीआरपीसी के तहत दाखिल याचिका को स्वीकार करते हुए विशेष न्यायाधीश, एससी/एसटी एक्ट, बाराबंकी द्वारा पारित उस आदेश को रद्द कर दिया है जिसमें उनके खिलाफ अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 की धारा 4 के अंतर्गत अभियोजन की संस्तुति की गई थी। न्यायालय ने कहा कि यह टिप्पणी बिना सुनवाई का अवसर दिए की गई, जो विधिसम्मत नहीं है।

पृष्ठभूमि

प्रकरण थाना जैदपुर, जिला बाराबंकी में दर्ज अपराध संख्या 143/2014 से संबंधित है, जिसमें वादी सीताराम ने अपनी पुत्री कुमारी रेनू के साथ दुष्कर्म का आरोप तुफैल पुत्र मोहम्मद हनीफ पर लगाया था। प्राथमिकी के बाद बलराम चारी दुबे को विवेचक नियुक्त किया गया जिन्होंने आरोपपत्र दाखिल किया। अभियोजन ने IPC की धाराओं 376, 323, 504, 506, एससी/एसटी एक्ट की धारा 3(2)(v) और पॉक्सो एक्ट की धारा 4 के तहत आरोप लगाए।

READ ALSO  वरिष्ठ अधिवक्ता आर वेंकटरमणि भारत के अगले महान्यायवादी के रूप में नियुक्त- तीन साल का होगा कार्यकाल

विशेष न्यायाधीश ने 27 अक्टूबर 2015 को पारित निर्णय में पाया कि विवेचक ने न तो पीड़िता का 164 सीआरपीसी के तहत बयान मजिस्ट्रेट के समक्ष दर्ज कराया और न ही चिकित्सक का बयान लिया। इस आधार पर उन्होंने विवेचक के खिलाफ एससी/एसटी एक्ट की धारा 4 के तहत अभियोजन की सिफारिश की।

Video thumbnail

याचिकाकर्ता की दलीलें

अधिवक्ता महेन्द्र प्रताप सिंह ने कहा कि ट्रायल कोर्ट ने याचिकाकर्ता को दोषी ठहराते हुए उसके विरुद्ध कार्रवाई की संस्तुति कर दी, जबकि उसे अपनी बात रखने का कोई अवसर नहीं दिया गया। उन्होंने तर्क दिया कि याचिकाकर्ता ने विधिवत विवेचना की और चार्जशीट दाखिल की, इसलिए यह ‘जानबूझकर लापरवाही’ नहीं मानी जा सकती।

राज्य सरकार का पक्ष

राज्य की ओर से अपर सरकारी अधिवक्ता निर्मल कुमार पांडेय ने भी स्वीकार किया कि याचिका में वर्णित कई तथ्यों का खंडन नहीं किया गया है और कुछ हद तक उन्हें स्वीकार किया गया है।

READ ALSO  हाई कोर्ट ने गिरफ्तारी से सुरक्षा के खिलाफ दिल्ली पुलिस की याचिका पर न्यूज़क्लिक संस्थापक का पक्ष मांगा

न्यायालय का विश्लेषण

जस्टिस श्री प्रकाश सिंह ने State of U.P. vs Mohammad Naim (AIR 1964 SC 703) और Neeraj Garg vs Sarita Rani [(2021) 9 SCC 92] के निर्णयों का हवाला देते हुए कहा कि सार्वजनिक अधिकारियों के विरुद्ध प्रतिकूल टिप्पणियां करने से पूर्व तीन आवश्यक शर्तें पूरी होनी चाहिए—

  1. संबंधित व्यक्ति को अपनी बात रखने का अवसर मिला हो,
  2. रिकॉर्ड में ऐसा कोई प्रमाण हो जिससे टिप्पणी उचित मानी जाए,
  3. और टिप्पणी का निर्णय में आवश्यक और अभिन्न भाग होना आवश्यक हो।

न्यायालय ने कहा, “जानबूझकर लापरवाही का अर्थ है किसी विधिक कर्तव्य का जानबूझकर उल्लंघन। केवल प्रक्रिया में त्रुटि को ‘wilful negligence’ नहीं माना जा सकता।”

न्यायालय ने यह भी कहा कि विवेचक ने न्यायालय में उपस्थित होकर बयान दिया कि पीड़िता अस्वस्थ थी और उसने खुद 164 सीआरपीसी के तहत बयान न दर्ज करने की मंशा जताई थी। पीड़िता ने हालांकि बाद में इससे इनकार किया, परंतु ऐसा कोई प्रमाण नहीं है कि उसने विवेचक के विरुद्ध कभी शिकायत दर्ज कराई हो।

READ ALSO  महिला से मारपीट के एक मामले में कलकत्ता हाई कोर्ट से BJP नेता कैलाश विजयवर्गीय को राहत

निष्कर्ष और आदेश

अदालत ने पाया कि विशेष न्यायाधीश द्वारा प्रतिकूल टिप्पणी पारित करने से पूर्व याचिकाकर्ता को कोई अवसर नहीं दिया गया, जो कि विधिसम्मत नहीं है। इसके अलावा, यह टिप्पणी निर्णय का आवश्यक भाग भी नहीं थी।

“27-10-2015 के निर्णय में की गई प्रतिकूल टिप्पणी, जो आदेश के पैरा 8 में उद्धृत है, निरस्त की जाती है।”

  • प्रकरण शीर्षक: बलराम चारी दुबे बनाम राज्य उत्तर प्रदेश, सचिव गृह विभाग
  • मामला संख्या: ए482 धारा 482 सीआरपीसी आवेदन संख्या 16 / 2016

Law Trend
Law Trendhttps://lawtrend.in/
Legal News Website Providing Latest Judgments of Supreme Court and High Court

Related Articles

Latest Articles