भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण फैसले में देशभर के हाईकोर्ट को निर्देश दिया है कि निष्पादन (execution) याचिकाओं का निपटारा दाखिल होने की तारीख से छह माह के भीतर किया जाए। शीर्ष अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि निष्पादन कार्यवाही में अनावश्यक देरी के लिए पीठासीन अधिकारियों को जवाबदेह ठहराया जाएगा। यह निर्णय Periyammal (Dead) बनाम V. Rajamani [सिविल अपील सं. 3640-3642/2025] मामले में आया, जिसमें यह मुद्दा उठाया गया कि एक डिक्री को लागू करवाने में वादी को वर्षों तक संघर्ष करना पड़ता है।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला 30 जून 1980 को हुए एक बिक्री समझौते से संबंधित है, जो अपीलकर्ताओं के पिता अय्यवू उडैयार और विक्रेता रामानुजन व जगदीशन (प्रतिवादी सं. 3 व 4) के बीच हुआ था। इस समझौते के तहत ₹67,000 में संपत्ति की बिक्री तय हुई थी, जिसमें ₹10,000 अग्रिम राशि के रूप में दिए गए थे। हालांकि, विक्रेताओं द्वारा बिक्री विलेख (sale deed) निष्पादित न किए जाने पर, अय्यवू उडैयार को O.S. No. 514/1983 के तहत सेलम के अधीनस्थ न्यायाधीश (Subordinate Judge) की अदालत में विशिष्ट निष्पादन (specific performance) का मुकदमा दायर करना पड़ा।
2 अप्रैल 1986 को ट्रायल कोर्ट ने वादी के पक्ष में निर्णय दिया। हाईकोर्ट और फिर सुप्रीम कोर्ट ने भी इस फैसले को बरकरार रखा, जिससे विक्रेताओं की सभी अपील खारिज हो गईं। बावजूद इसके, न्यायिक प्रक्रियात्मक बाधाओं और तीसरे पक्ष (प्रतिवादी 1 और 2) द्वारा संपत्ति के कब्जे में अवरोध पैदा करने के कारण निष्पादन कार्यवाही दशकों तक लंबित रही।

प्रमुख कानूनी प्रश्न
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में निम्नलिखित कानूनी मुद्दों पर विचार किया:
- निष्पादन कार्यवाही में देरी – क्या अधीनस्थ अदालतों ने निष्पादन में आपत्तियां सुनकर अनुचित विलंब किया?
- धारा 47 सीपीसी का दायरा – क्या वे पक्षकार (प्रतिवादी 1 और 2) जो मूल मुकदमे का हिस्सा नहीं थे, निष्पादन प्रक्रिया को चुनौती दे सकते हैं?
- प्रक्रियात्मक कानूनों की व्याख्या – क्या प्रक्रियात्मक कानून न्याय को सुगम बनाने के लिए होने चाहिए, न कि इसमें बाधा उत्पन्न करने के लिए?
सुप्रीम कोर्ट का अवलोकन और निर्णय
न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर. महादेवन की पीठ ने निष्पादन कार्यवाही में अनावश्यक देरी पर गहरी चिंता व्यक्त की। न्यायालय ने कहा:
“न्याय पाने के इच्छुक व्यक्ति को अक्सर लंबी और जटिल न्यायिक प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है। यहां तक कि जब कोई वादी अपने पक्ष में डिक्री प्राप्त कर लेता है, तब भी निष्पादन कार्यवाही एक कठिन लड़ाई बन जाती है, जो अनावश्यक आपत्तियों और प्रक्रियात्मक बाधाओं के कारण लंबी खिंचती रहती है।”
सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट और सेलम के अतिरिक्त अधीनस्थ न्यायाधीश के दृष्टिकोण की आलोचना की, जिन्होंने उन पक्षकारों (प्रतिवादी 1 और 2) की आपत्तियों को सुना जो मूल वाद का हिस्सा नहीं थे। अदालत ने स्पष्ट किया कि प्रक्रियात्मक कानूनों की व्याख्या इस प्रकार होनी चाहिए जिससे न्याय मिलने में तेजी आए, न कि इसमें विलंब हो।
सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए निर्देश
- छह माह में निष्पादन याचिका का निपटारा – हाईकोर्ट यह सुनिश्चित करें कि निष्पादन याचिकाएं दायर होने के छह माह के भीतर निपटा दी जाएं।
- पीठासीन अधिकारियों की जवाबदेही – जिन न्यायिक अधिकारियों के कारण अनुचित देरी होगी, उन्हें जवाबदेह ठहराया जाएगा।
- अनावश्यक आपत्तियों पर रोक – वे पक्षकार जो मूल मुकदमे का हिस्सा नहीं थे, वे निष्पादन कार्यवाही को रोकने के लिए आपत्ति दाखिल नहीं कर सकते, जब तक कि वे स्पष्ट रूप से यह साबित न करें कि उनके पास हस्तक्षेप करने का वैध अधिकार है।
- अनावश्यक मुकदमेबाजी से बचाव – अदालतें प्रक्रियात्मक कानूनों की ऐसी व्याख्या करें जिससे अनावश्यक मुकदमेबाजी न हो और न्याय में अनावश्यक देरी से बचा जा सके।