भारत के सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में दोहराया है कि दीवानी प्रक्रिया संहिता (CPC) के आदेश 39 नियम 1 और 2 के तहत निषेधाज्ञा (injunction) के उल्लंघन का दंड, निषेधाज्ञा के बाद में निरस्त हो जाने पर भी समाप्त नहीं होता। यह फैसला स्मृति लावण्या सी. और अन्य बनाम विट्ठल गुरुदास पाई और अन्य (सिविल अपील संख्या 13999/2024) में दिया गया, जो कर्नाटक उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ दायर विशेष अनुमति याचिका (SLP) से उत्पन्न हुआ था।
पृष्ठभूमि
यह विवाद 30 अप्रैल, 2004 को किए गए एक संयुक्त विकास समझौते (JDA) से संबंधित था, जो आवासीय अपार्टमेंटों के निर्माण के लिए किया गया था। समझौते के अनुसार, निर्माण कार्य 31 अक्टूबर, 2006 तक पूरा होना था, लेकिन परियोजना समय पर पूरी नहीं हो सकी। इस देरी के चलते, वादी (जो सुप्रीम कोर्ट में उत्तरदाता थे) ने 23 मार्च, 2007 को एक कानूनी नोटिस जारी कर JDA को समाप्त कर दिया और इसके बाद मूल वाद संख्या 4191/2007 दाखिल किया, जिसमें इस निरस्तीकरण की घोषणा की मांग की गई।
न्यायिक कार्यवाही के दौरान, प्रतिवादियों (जो सुप्रीम कोर्ट में अपीलकर्ता थे) ने 11 जुलाई, 2007 और 13 अगस्त, 2007 को ट्रायल कोर्ट में एक शपथ पत्र प्रस्तुत किया, जिसमें कहा गया था कि वे विवादित संपत्ति को किसी को नहीं बेचेंगे। लेकिन वादी का आरोप था कि इस आश्वासन के बावजूद, प्रतिवादियों ने कई बिक्री विलेख निष्पादित किए, जो अदालत में दिए गए वचन का उल्लंघन था। इसके परिणामस्वरूप, आदेश 39 नियम 2A CPC के तहत अवमानना कार्यवाही शुरू हुई।
कर्नाटक हाईकोर्ट और ट्रायल कोर्ट का निर्णय
ट्रायल कोर्ट ने अवमानना याचिका को खारिज कर दिया, यह कहते हुए कि आरोपों को साबित करने के लिए पर्याप्त साक्ष्य नहीं हैं। लेकिन कर्नाटक हाईकोर्ट ने मिसलेनियस फर्स्ट अपील संख्या 7055/2013 (CPC) में इस फैसले को पलट दिया और प्रतिवादियों को अदालत की अवमानना का दोषी ठहराया। हाईकोर्ट ने द्वितीय अपीलकर्ता चालसानी आर.बी. को तीन महीने के लिए दीवानी कारावास की सजा सुनाई और विवादित संपत्ति को एक वर्ष के लिए कुर्क करने का आदेश दिया। साथ ही, प्रतिवादियों को ₹10 लाख का मुआवजा देने के लिए भी कहा गया।
सुप्रीम कोर्ट का निर्णय
अपील पर सुनवाई करते हुए, सुप्रीम कोर्ट की न्यायमूर्ति पंकज मित्तल और न्यायमूर्ति संजय करोल की पीठ ने कर्नाटक हाईकोर्ट के निर्णय को सही ठहराया और कहा कि हाईकोर्ट का अवमानना क्षेत्राधिकार में निर्णय लेना उचित था। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यदि कोई निषेधाज्ञा आदेश बाद में निरस्त कर दिया जाए, तो भी उसके उल्लंघन के लिए दी गई सजा समाप्त नहीं होती।
सुप्रीम कोर्ट ने Samee Khan बनाम Bindu Khan (1998) 7 SCC 59 मामले में दिए गए निर्णय का उल्लेख करते हुए कहा:
“यदि निषेधाज्ञा आदेश बाद में निरस्त कर दिया जाता है, तो उसकी अवज्ञा अपने आप समाप्त नहीं होती। यह अलग बात हो सकती है कि इस अवमानना की गंभीरता को बाद में कुछ कम किया जाए।”
इसके अलावा, कोर्ट ने Kanwar Singh Saini बनाम दिल्ली उच्च न्यायालय (2012) 4 SCC 307 का हवाला देते हुए कहा कि आदेश 39 नियम 2A CPC के तहत निषेधाज्ञा उल्लंघन के लिए सजा दी जा सकती है, जबकि डिक्री के प्रवर्तन के लिए आदेश 21 नियम 32 CPC लागू होता है।
वकील और मुवक्किल के संबंधों पर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी
अपील में प्रतिवादियों का एक मुख्य तर्क यह था कि उनके वकील ने बिना किसी विशेष अनुमति के ट्रायल कोर्ट में प्रतिबद्धता (undertaking) दी थी। सुप्रीम कोर्ट ने इस दलील को अस्वीकार कर दिया और कहा कि वकील और मुवक्किल का संबंध विश्वास (fiduciary) पर आधारित होता है, और अदालत में वकील द्वारा दिया गया बयान मुवक्किल को बाध्य करता है।
कोर्ट ने Himalayan Cooperative Group Housing Society बनाम बलवान सिंह (2015) 7 SCC 373 के निर्णय का हवाला देते हुए कहा कि वकीलों को अपने मुवक्किलों के सर्वोत्तम हितों में कार्य करना चाहिए और दिए गए स्पष्ट निर्देशों का पालन करना चाहिए।
सजा में संशोधन
हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने अवमानना सजा को बरकरार रखा, लेकिन अपीलकर्ता की उम्र को ध्यान में रखते हुए तीन महीने की जेल की सजा को रद्द कर दिया। हालांकि, संपत्ति की कुर्की (attachment) का आदेश यथावत रखा गया और मुआवजा राशि को ₹10 लाख से बढ़ाकर ₹13 लाख कर दिया गया, जिस पर 2 अगस्त, 2013 से 6% साधारण ब्याज भी लागू होगा।
