छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट की खंडपीठ ने एक अनुच्छेद 226 के तहत दायर रिट याचिका को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि जब कोई प्रभावी वैकल्पिक उपाय मौजूद हो, तो ऐसे मामले में संवैधानिक रिट याचिका स्वीकार्य नहीं होती। याचिका एम/एस कुनाल बीएसबीके जॉइंट वेंचर प्रा. लि. द्वारा छत्तीसगढ़ हाउसिंग बोर्ड (CGHB) से वस्तु एवं सेवा कर (GST) की प्रतिपूर्ति के लिए दायर की गई थी।
मुख्य न्यायाधीश रमेश सिन्हा और न्यायमूर्ति विभु दत्त गुरु की खंडपीठ ने यह निर्णय सुनाया।
मामले की पृष्ठभूमि
याचिकाकर्ता एम/एस कुनाल बीएसबीके जॉइंट वेंचर प्रा. लि., बीएसबीके प्रा. लि. और कुनाल स्ट्रक्चर इंडिया प्रा. लि. द्वारा गठित एक विशेष प्रयोजन इकाई (SPV) है। वर्ष 2015 में इसे नया रायपुर में प्रधानमंत्री आवास योजना और मुख्यमंत्री आवास योजना के अंतर्गत एलआईजी और ईडब्ल्यूएस मकानों के निर्माण का ठेका मिला था। इसके लिए 5 फरवरी 2016 को एक अनुबंध निष्पादित किया गया।

याचिकाकर्ता ने दावा किया कि निविदा के समय जीएसटी लागू नहीं था और अनुबंध की शर्तों के अनुसार सेवा कर को प्रतिपूर्ति किया जाना था। 1 जुलाई 2017 से जीएसटी लागू होने के बाद उक्त सेवा कर अब जीएसटी के तहत करयोग्य हो गई, परंतु हाउसिंग बोर्ड ने ₹9.18 करोड़ की जीएसटी राशि के भुगतान से इनकार कर दिया, जिससे याचिकाकर्ता को भारी आर्थिक क्षति उठानी पड़ी।
याचिकाकर्ता की दलीलें
अधिवक्ता अभिषेक रस्तोगी ने याचिकाकर्ता की ओर से निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किए:
- निविदा जीएसटी लागू होने से पूर्व दी गई थी, अतः अनुबंध मूल्य में जीएसटी शामिल नहीं था।
- अनुबंध की धारा 2.14.F के अनुसार, यदि सेवा कर लागू होता है तो उसकी प्रतिपूर्ति की जानी थी।
- याचिकाकर्ता ने जीएसटी का भुगतान किया और उसका इनपुट टैक्स क्रेडिट (ITC) CGHB को स्थानांतरित किया।
- CGHB ने आंतरिक पत्राचार में प्रतिपूर्ति की बात स्वीकार की, फिर भी भुगतान नहीं किया।
- वैकल्पिक उपायों के विफल होने और वित्तीय संकट उत्पन्न होने के बाद ही याचिका दायर की गई।
- अनुच्छेद 226 के तहत मामला स्वीकार्य है क्योंकि इसमें सार्वजनिक क़ानून का तत्व शामिल है और पूर्व निर्णय (जैसे BSBK Pvt. Ltd. बनाम छत्तीसगढ़ राज्य) से समानता है।
प्रतिवादी CGHB की आपत्तियाँ
CGHB की ओर से अधिवक्ता अमृतो दास ने प्रारंभिक आपत्तियाँ उठाईं:
- याचिका निजी अनुबंध पर आधारित थी और इसमें कोई सार्वजनिक क़ानून का तत्व नहीं था।
- अनुबंध की धारा 1.21 में मध्यस्थता का प्रावधान था।
- याचिकाकर्ता को कर व्यवस्था की शर्तों की पूरी जानकारी थी; धारा 2.14A और 11.2 में स्पष्ट किया गया था कि करों में कोई बदलाव अतिरिक्त भुगतान का आधार नहीं बनेगा।
- याचिकाकर्ता द्वारा भुगतान की गई जीएसटी को सेवा कर के समकक्ष नहीं माना जा सकता।
- यह याचिका तीसरी बार की गई थी और समुचित प्रक्रिया का पालन नहीं हुआ।
न्यायालय का विश्लेषण
कोर्ट ने निम्नलिखित महत्वपूर्ण बिंदुओं का उल्लेख किया:
- अनुबंध की धारा 2.14A के अनुसार, निविदा दरों में सभी कर, शुल्क और लेवी सम्मिलित माने गए हैं।
- धारा 11.2 में पुनः उल्लेख है कि कर दरों में बदलाव से कोई अतिरिक्त भुगतान देय नहीं होगा।
- धारा 2.14F में केवल सेवा कर के संदर्भ में प्रतिपूर्ति का उल्लेख है, जीएसटी का नहीं।
- करों में बदलाव के बावजूद अनुबंध में कोई संशोधन नहीं किया गया।
- विवाद अनुबंध की व्याख्या और वित्तीय दायित्वों से संबंधित था, जो पूरी तरह निजी कानून के दायरे में आता है।
कोर्ट ने दोहराया:
“अनुच्छेद 226 के तहत अधिकार क्षेत्र के प्रयोग पर एक आत्म-नियंत्रण यह है कि जब कोई प्रभावी वैकल्पिक उपाय उपलब्ध हो, तो सामान्यतः रिट याचिका पर विचार नहीं किया जाना चाहिए।”
न्यायालय का निर्णय
याचिकाकर्ता द्वारा उठाया गया ‘पब्लिक लॉ’ का तर्क खारिज करते हुए कोर्ट ने कहा:
- विवाद पूरी तरह अनुबंध आधारित और निजी प्रकृति का है।
- मध्यस्थता एक प्रभावी वैकल्पिक उपाय है।
- याचिका में तथ्यात्मक विवाद शामिल हैं, जो रिट क्षेत्राधिकार के उपयुक्त नहीं हैं।
- याचिकाकर्ता द्वारा संदर्भित BSBK मामलों में तथ्य भिन्न हैं।
इस आधार पर कोर्ट ने कहा:
“याचिकाकर्ता को अनुबंधीय दायित्वों से उत्पन्न किसी भी राशि की वसूली हेतु सक्षम दीवानी न्यायालय का सहारा लेना चाहिए था। उसने उपलब्ध वैकल्पिक उपायों का समुचित रूप से पालन नहीं किया है।”
छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने यह स्पष्ट कर दिया कि अनुबंध आधारित विवादों को, चाहे वे जीएसटी जैसी विधिक व्यवस्थाओं से जुड़े हों, केवल उस स्थिति में रिट क्षेत्राधिकार में लाया जा सकता है जब स्पष्ट सार्वजनिक कानून का तत्व उपस्थित हो। जब अनुबंध में मध्यस्थता जैसी वैकल्पिक व्यवस्था मौजूद हो, तो अनुच्छेद 226 के अंतर्गत न्यायिक समीक्षा का उपयोग नहीं किया जाना चाहिए।