सेवा मामलों पर एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट ने दो चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों की बर्खास्तगी के आदेशों को रद्द कर दिया। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि विभागीय जांच को महज एक “प्रश्न-उत्तर सत्र” तक सीमित नहीं किया जा सकता। न्यायमूर्ति जे.जे. मुनीर ने इस बात पर जोर दिया कि ऐसी कार्यवाही उचित कानूनी प्रक्रिया का पालन करते हुए ही की जानी चाहिए, जिसमें आरोपों को साबित करने के लिए सबूतों की रिकॉर्डिंग अनिवार्य है। कोर्ट ने पाया कि संबंधित जांच प्रक्रिया में गंभीर खामियां थीं और निष्कर्ष बिना किसी सबूत के “विकृत” थे, जिसके आधार पर दोनों कर्मचारियों को बहाल करने का आदेश दिया गया।
यह फैसला विक्रमदित्य इंटर कॉलेज, सिकंदरा, प्रयागराज के दो चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों, जय प्रकाश और ननकू राम द्वारा दायर दो जुड़ी हुई रिट याचिकाओं पर आया। याचिकाकर्ताओं का प्रतिनिधित्व अधिवक्ता श्री प्रदीप कुमार उपाध्याय और श्री विकास बुधवर ने किया। प्रतिवादियों की ओर से श्री के.आर. सिंह, श्री कृष्ण जी खरे, श्री संजय श्रीवास्तव, श्री विमल चंद्र मिश्रा और राज्य सरकार की ओर से अतिरिक्त मुख्य स्थायी वकील श्री गिरीजेश कुमार त्रिपाठी पेश हुए।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला तब शुरू हुआ जब एक चौकीदार जय प्रकाश ने अपनी पदोन्नति के लिए दावा पेश किया, जिसके तुरंत बाद उनके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई शुरू कर दी गई। इसी तरह, एक माली ननकू राम, जिन्होंने भी पदोन्नति का दावा किया था, को भी विभागीय जांच का सामना करना पड़ा। दोनों याचिकाकर्ताओं ने आरोप लगाया कि यह कार्रवाई कॉलेज प्रबंधक के भतीजे जनार्दन सिंह की पदोन्नति का रास्ता साफ करने के लिए दुर्भावनापूर्ण इरादे से की गई थी।

जय प्रकाश पर आधिकारिक दस्तावेजों की चोरी, साजिश रचने, छद्म नाम से शिकायत करने और हाईकोर्ट को गुमराह करने जैसे आरोप लगाए गए थे। वहीं, ननकू राम पर क्लर्कों के जाली हस्ताक्षर करने, संस्था के रिकॉर्ड चोरी करने और प्रिंसिपल को बिना हस्ताक्षर वाला पत्र भेजने का आरोप था। जांच के बाद दोनों को सेवा से बर्खास्त कर दिया गया था।
कोर्ट का विश्लेषण और निष्कर्ष
न्यायमूर्ति जे.जे. मुनीर ने जांच रिपोर्टों की विस्तृत समीक्षा की और प्रक्रिया में गंभीर अवैधता और सबूतों का पूर्ण अभाव पाया।
जांच ‘प्रश्न-उत्तर सत्र’ नहीं हो सकती:
कोर्ट ने ननकू राम के मामले में प्रक्रियात्मक खामियों को रेखांकित करते हुए कहा कि जांच अधिकारी ने “प्रश्न-उत्तर शैली की जांच” अपनाई थी, जो कानून के अनुसार बिल्कुल भी मान्य नहीं है, खासकर जब किसी कर्मचारी पर बड़ी सजा का प्रस्ताव हो।
फैसले में सुप्रीम कोर्ट के सत्येंद्र सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2024) मामले का हवाला देते हुए कहा गया कि “बड़ी सजा प्रस्तावित करने वाली अनुशासनात्मक कार्यवाही में सबूतों की रिकॉर्डिंग अनिवार्य है।” कोर्ट ने यह भी पाया कि ननकू राम को बचाव सहायक की सुविधा न देना “नैसर्गिक न्याय का हनन” था।
‘बिना सबूत के’ निष्कर्ष:
जय प्रकाश के मामले में, कोर्ट ने पाया कि जांच अधिकारी ने हर आरोप को “संस्था की ओर से बिना कोई सबूत पेश किए” सिद्ध मान लिया था।
- चोरी के आरोप पर, कोर्ट ने कहा, “आरोप को साबित करने के लिए जांच अधिकारी द्वारा किसी भी सामग्री पर विचार नहीं किया गया। न तो कोई प्राथमिकी थी और न ही किसी गवाह का बयान।”
- सहकर्मियों को डराने-धमकाने का आरोप “पूरी तरह से विकृत” पाया गया क्योंकि कथित रूप से धमकाए गए कर्मचारियों को कभी गवाह के रूप में पेश ही नहीं किया गया।
- हाईकोर्ट को गुमराह करने के आरोप को कोर्ट ने “आरोप ही नहीं” माना और कहा, “नियोक्ता का यह काम नहीं है कि वह कोर्ट में तथ्यों को छिपाने के मामले को सेवा कदाचार माने।”
- इसी तरह, ननकू राम के खिलाफ बिना हस्ताक्षर वाला पत्र भेजने के आरोप को भी “गैर-आरोप” कहकर खारिज कर दिया गया।
कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि अनुशासनात्मक प्राधिकारी ने “आंख मूंदकर जांच अधिकारी के निष्कर्षों को स्वीकार कर लिया था।”
अंतिम निर्णय
अपने विश्लेषण के आधार पर, हाईकोर्ट ने निम्नलिखित आदेश पारित किए:
- रिट-ए संख्या 15765/2014 (जय प्रकाश): याचिका स्वीकार की गई। बर्खास्तगी का आदेश रद्द कर दिया गया और कोर्ट ने याचिकाकर्ता को “वरिष्ठता और परिलब्धियों के सभी परिणामी लाभों के साथ तत्काल सेवा में बहाल करने” का परमादेश जारी किया।
- रिट-ए संख्या 51031/2015 (ननकू राम): याचिका आंशिक रूप से स्वीकार की गई। बर्खास्तगी और अपीलीय आदेशों को रद्द कर दिया गया और उन्हें तत्काल बहाल करने का आदेश दिया गया। हालांकि, कोर्ट ने संस्था को यह स्वतंत्रता दी कि वह “याचिकाकर्ता के खिलाफ केवल आरोप संख्या 1 और 2 पर आरोप-पत्र के स्तर से नई कार्यवाही” कर सकती है, लेकिन अन्य आरोपों पर नहीं। कोई भी नई कार्यवाही उचित प्रक्रिया का सख्ती से पालन करते हुए ही की जाएगी।