उत्तराखंड में अतिक्रमण हटाने के अभियान के दौरान अपनाई जा रही प्रक्रिया पर उत्तराखंड हाईकोर्ट ने कड़ा रुख अपनाया है। कोर्ट ने प्रभावित पक्षों को बिना नोटिस दिए और उनका पक्ष सुने बिना की जा रही ध्वस्तीकरण की कार्रवाई पर नाराजगी जताते हुए राज्य के मुख्य सचिव को तलब किया है।
मुख्य न्यायाधीश जी. नरेंद्र और न्यायमूर्ति सुभाष उपाध्याय की खंडपीठ ने सोमवार को एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए यह निर्देश जारी किए। कोर्ट ने मुख्य सचिव को वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से पेश होकर यह स्पष्ट करने को कहा है कि आखिर सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों के विपरीत जाकर कार्रवाई क्यों की जा रही है।
सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ताओं ने कोर्ट के सामने तर्क दिया कि राज्य प्रशासन अतिक्रमण हटाने की आड़ में कानून की उचित प्रक्रिया का पालन नहीं कर रहा है। आरोप है कि लोगों को न तो वैधानिक नोटिस दिए जा रहे हैं और न ही उन्हें सुनवाई का कोई मौका दिया जा रहा है, जो सीधे तौर पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय की गई ‘बुलडोजर कार्रवाई’ की गाइडलाइंस का उल्लंघन है।
याचिका में कहा गया कि ध्वस्तीकरण से पहले पक्ष रखने का अवसर न देना ‘प्राकृतिक न्याय’ (Natural Justice) के सिद्धांतों के खिलाफ है।
यह मामला पूरे राज्य में वन भूमि, स्टेट हाईवे, नेशनल हाईवे और राजस्व भूमि पर हुए अवैध कब्जों से जुड़ा है। इससे पहले, हाईकोर्ट ने नैनीताल के पदमपुरी इलाके में वन विभाग की जमीन और सार्वजनिक स्थानों पर हुए अतिक्रमण का स्वतः संज्ञान लिया था।
कोर्ट ने बाद में इस मामले का दायरा बढ़ाते हुए सभी जिलाधिकारियों और प्रभागीय वनाधिकारियों (DFOs) को निर्देश दिए थे कि वे अपने क्षेत्रों में सरकारी जमीनों से अवैध कब्जे हटाकर अनुपालन रिपोर्ट पेश करें।
महत्वपूर्ण बात यह है कि प्रक्रिया में पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए हाईकोर्ट ने पूर्व में राज्य सरकार को ‘जिला स्तरीय समितियां’ गठित करने का आदेश दिया था। इन समितियों का काम चिह्नित अतिक्रमणों पर सुनवाई करना था ताकि किसी भी तरह की तोड़फोड़ से पहले दावों की सत्यता जांची जा सके।
सोमवार को कोर्ट को बताया गया कि प्रशासन इन समितियों के माध्यम से सुनवाई करने की बजाय सीधे ध्वस्तीकरण की कार्रवाई कर रहा है। इस पर गंभीरता दिखाते हुए कोर्ट ने अब राज्य के शीर्ष नौकरशाह से जवाब तलब किया है।

