केवल पीड़िता के बयान के आधार पर दोषसिद्धि सुरक्षित नहीं मानी जा सकती: छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने POCSO के दोषी को बरी किया

छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने POCSO अधिनियम और भारतीय दंड संहिता की विभिन्न धाराओं के तहत दोषसिद्ध एक युवक की 10 साल की सजा को रद्द करते हुए कहा कि पीड़िता का बयान “स्टर्लिंग क्वालिटी” का नहीं है और केवल उसी के आधार पर दोषसिद्धि सुरक्षित नहीं मानी जा सकती। कोर्ट ने अभियुक्त को संदेह का लाभ देते हुए बरी कर दिया।

यह फैसला न्यायमूर्ति संजय के. अग्रवाल की एकलपीठ ने क्रिमिनल अपील संख्या 176/2023 में सुनाया, जो विशेष सत्र वाद संख्या 60/2019 में दुर्ग की फास्ट ट्रैक विशेष POCSO कोर्ट द्वारा 31 अक्टूबर 2022 को सुनाई गई सजा के विरुद्ध दायर की गई थी।

पृष्ठभूमि

अपीलकर्ता ललेश उर्फ लाला बर्ले को निचली अदालत ने भारतीय दंड संहिता की धाराओं 363, 366, 506बी तथा POCSO अधिनियम की धाराओं 3 और 4 के तहत दोषी करार देते हुए 10 वर्ष के सश्रम कारावास की सजा सुनाई थी।

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अभियोजन के अनुसार, 25 मार्च 2019 को आरोपी ने कथित रूप से एक नाबालिग लड़की का अपहरण कर उसके साथ बलात्कार किया। पीड़िता की मां द्वारा उसी दिन पुलिस में एफआईआर दर्ज कराई गई थी। अभियोजन ने आरोप लगाया कि आरोपी पीड़िता को कई स्थानों पर ले गया और अंततः अपने नाना के घर पौरवारा में उसके साथ दुष्कर्म किया।

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पक्षकारों की दलीलें

अपीलकर्ता की ओर से अधिवक्ता श्रीकांत कौशिक ने दलील दी कि:

  • अभियोजन का पूरा मामला केवल पीड़िता के बयान पर आधारित है, जिसे कोई स्वतंत्र साक्ष्य समर्थन नहीं देता।
  • पीड़िता की आयु 18 वर्ष से कम होने का कोई निर्णायक प्रमाण नहीं है।
  • पीड़िता की सहमति भी इस मामले में स्पष्ट रूप से सामने आती है, इसलिए आरोपी को संदेह का लाभ दिया जाना चाहिए।

वहीं राज्य की ओर से अधिवक्ता शरद मिश्रा ने कहा कि पीड़िता ने स्पष्ट रूप से आरोपी के विरुद्ध आरोप लगाए हैं और निचली अदालत ने साक्ष्यों के आधार पर सही निर्णय दिया है।

न्यायालय का विश्लेषण

न्यायालय ने पीड़िता की आयु और गवाही की प्रमाणिकता पर विस्तृत विचार किया। कोर्ट ने पाया कि विद्यालय के दाखिल खारिज रजिस्टर (Ex.P/12C) के आधार पर आयु निर्धारित की गई थी, लेकिन संबंधित प्रधानाध्यापक ने स्वयं कहा कि उन्होंने यह प्रविष्टि नहीं की और उन्हें इसके स्रोत की जानकारी नहीं है। इसके अतिरिक्त, अभियोजन ने एक्स-रे जांच जैसी अन्य विधिक प्रक्रिया से आयु निर्धारण नहीं कराया, जबकि डॉक्टर ने इसकी अनुशंसा की थी।

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सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों Manak Chand v. State of Haryana और P. Yuvaprakash v. State का हवाला देते हुए कोर्ट ने दोहराया कि जब तक वैध दस्तावेज या चिकित्सा राय उपलब्ध नहीं हो, तब तक पीड़िता की अल्पायु होने की बात स्वीकार नहीं की जा सकती।

पीड़िता की गवाही की विश्वसनीयता पर विचार करते हुए कोर्ट ने कहा:

“पीड़िता का बयान ‘स्टर्लिंग क्वालिटी’ का नहीं है और वह ‘स्टर्लिंग गवाह’ नहीं मानी जा सकती… इसलिए आरोपी को केवल उसके बयान के आधार पर दोषी ठहराना सुरक्षित नहीं होगा।”

कोर्ट ने यह भी नोट किया कि पीड़िता ने घटना के बाद आरोपी के परिवारजनों और नाते-रिश्तेदारों से मिलने के बावजूद किसी को घटना की जानकारी नहीं दी, जो संदेह को और गहरा करता है।

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चिकित्सा साक्ष्य में योनि से रक्तस्राव और हाइमन फटना दर्शाया गया, लेकिन कोई बाहरी चोट नहीं मिली। वहीं फॉरेंसिक रिपोर्ट में पीड़िता और आरोपी के कपड़ों पर कोई वीर्य या शुक्राणु नहीं पाया गया।

अंतिम निर्णय

न्यायालय ने कहा कि अभियोजन न तो पीड़िता की अल्पायु सिद्ध कर सका, न ही यह प्रमाणित कर सका कि सहमति के बिना यौन संबंध बनाए गए। अंततः न्यायालय ने कहा:

“ऐसी स्थिति में आरोपी की दोषसिद्धि को बनाए रखना पूर्णतः असुरक्षित होगा… अतः वह संदेह का लाभ पाने का अधिकारी है।”

हाईकोर्ट ने आरोपी को सभी आरोपों से बरी करते हुए तत्काल रिहाई का निर्देश दिया, यदि वह किसी अन्य मामले में हिरासत में न हो। आपराधिक अपील स्वीकृत कर ली गई।

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