भारत के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने रविवार को न्याय व्यवस्था में तकनीक के बढ़ते उपयोग को लेकर सतर्क रुख अपनाने की आवश्यकता पर जोर देते हुए कहा कि तकनीक को न्याय का सहायक बनना चाहिए, न कि उसका विकल्प।
न्यायमूर्ति सूर्यकांत ‘सामान्य नागरिक के लिए न्याय सुनिश्चित करना: मुकदमेबाजी की लागत और देरी कम करने की रणनीतियाँ’ विषय पर आयोजित संगोष्ठी को संबोधित कर रहे थे। यह कार्यक्रम ओडिशा हाई कोर्ट बार एसोसिएशन द्वारा आयोजित किया गया था।
मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि कोविड-19 महामारी के दौरान तकनीक अत्यंत उपयोगी सिद्ध हुई, लेकिन इसके अपने खतरे भी हैं।
उन्होंने कहा,
“डीप फेक और डिजिटल गिरफ्तारी के युग में अदालतें भोले आशावाद की शिकार नहीं हो सकतीं। जो सुधार गरीबों, बुजुर्गों या डिजिटल रूप से अपरिचित लोगों को बाहर कर दे, वह सुधार नहीं बल्कि प्रतिगमन है। इसलिए मैं हमेशा कहता आया हूं कि तकनीक न्याय की सेवक रहे, उसका स्थान न ले। यह मानव विवेक को सशक्त करे, उसे प्रतिस्थापित न करे।”
मुख्य न्यायाधीश ने न्यायालयों में मामलों की लंबित संख्या पर गहरी चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि ट्रायल कोर्ट से लेकर संवैधानिक न्यायालय तक, हर स्तर पर यह समस्या न्याय व्यवस्था को प्रभावित कर रही है।
उन्होंने कहा कि जब शीर्ष स्तर पर अवरोध उत्पन्न होता है, तो उसका दबाव नीचे की अदालतों पर और बढ़ जाता है।
उन्होंने आम नागरिक और न्याय के बीच दो प्रमुख बाधाओं की पहचान की — मुकदमेबाजी की ऊँची लागत और मामलों के निपटारे में अत्यधिक समय।
न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने कहा,
“लोग लंबित मामलों के दुष्चक्र की बात करते हैं — अधिक मामले, अधिक देरी और बढ़ती निराशा। मैं इसे उलटना चाहता हूं। जब लंबित मामले कम होंगे, तो भरोसा बढ़ेगा; भरोसा बढ़ेगा तो कानून के प्रति सम्मान गहरा होगा; और जब सम्मान गहराएगा, तो विवाद कम होंगे।”
मुख्य न्यायाधीश ने वैकल्पिक विवाद निवारण (ADR), विशेषकर मध्यस्थता, को लंबित मामलों को कम करने की सबसे प्रभावी और तात्कालिक संभावनाओं में से एक बताया।
अपने न्यायिक अनुभव साझा करते हुए उन्होंने कहा कि उन्होंने कटु पारिवारिक संपत्ति विवादों को एक ईमानदार संवाद के बाद सुलझते देखा है। उन्होंने यह भी कहा कि ट्रेडमार्क विवाद, छोटे आपराधिक मामले, वित्तीय झगड़े और यहां तक कि अंतरराष्ट्रीय वाणिज्यिक विवाद भी अदालत के बाहर सुलझाए गए हैं।
उन्होंने कहा कि अनुभवी न्यायाधीश यह समझ सकते हैं कि कोई मामला समझौते के लिए तैयार है, लेकिन केवल समझना पर्याप्त नहीं है। न्यायाधीशों, वकीलों और पक्षकारों — सभी को सक्रिय भूमिका निभानी होगी।
“भारत में मध्यस्थता के लिए आवश्यक कानूनी ढांचा पहले से मौजूद है। अब आवश्यकता है इसे अपनाने की सांस्कृतिक प्रतिबद्धता की,” उन्होंने कहा।
न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने कहा कि मध्यस्थता को प्रभावी कानूनी विकल्प बनाने के लिए यह समझ जरूरी है कि समझौता हार नहीं, बल्कि एक रणनीति है।
उन्होंने यह भी कहा कि सरकारी विभागों को अपील दायर करने की अपनी स्वचालित प्रवृत्ति से बाहर आना होगा।
“कई अपीलें कानूनी सिद्धांत पर नहीं, बल्कि संस्थागत असुरक्षा के कारण दायर की जाती हैं। इसके लिए प्रशिक्षण और जवाबदेही की व्यवस्था जरूरी है,” उन्होंने कहा।
मुख्य न्यायाधीश ने वकीलों से भी आग्रह किया कि वे उपयुक्त मंच का चयन करें, न कि उस मंच का जिसे वे रणनीतिक रूप से सुविधाजनक समझते हों।
नवीन समाधानों को अपनाने के प्रति उत्साह के बीच सावधानी बरतने की आवश्यकता पर जोर देते हुए उन्होंने कहा कि भारत के पास पहले से ही ऐसे स्वदेशी तंत्र मौजूद हैं जो प्रभावी ढंग से काम कर रहे हैं।
उन्होंने लोक अदालत प्रणाली का उदाहरण देते हुए कहा कि राष्ट्रीय लोक अदालत अभियानों के माध्यम से यह दुनिया की सबसे प्रभावी जमीनी स्तर की न्याय नवाचारों में से एक साबित हुई है।
“हर नई चीज बेहतर नहीं होती और हर पुरानी व्यवस्था अप्रासंगिक नहीं होती,” उन्होंने कहा।
मुख्य न्यायाधीश ने लंबित मामलों को कम करने के लिए न्यायिक अवसंरचना को मजबूत करने की आवश्यकता पर भी जोर दिया।
उन्होंने कहा,
“पर्याप्त संख्या में अदालतें और संसाधन न हों, तो सबसे ईमानदार न्याय प्रणाली भी लॉजिस्टिक दबाव में ढह जाएगी।”
कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के बीच समन्वय की आवश्यकता पर बल देते हुए उन्होंने कहा कि असंतुलन की स्थिति में कानून का शासन आगे नहीं बढ़ सकता।
“कानून बनाए जा सकते हैं, अपराध दर्ज हो सकते हैं, यहां तक कि स्वतंत्रता भी छीनी जा सकती है, लेकिन यदि समय पर सुनवाई नहीं हो पाती, तो न्याय का वादा अधूरा रह जाता है,” उन्होंने कहा।
इस कार्यक्रम में ओडिशा हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश हरिश टंडन सहित देशभर के विभिन्न उच्च न्यायालयों के न्यायाधीश उपस्थित थे।

