सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट और ट्रायल कोर्ट के उन फैसलों को रद्द कर दिया है, जिनमें एक पिता की वसीयत को इस आधार पर खारिज कर दिया गया था कि उसने अपनी नौ संतानों में से एक बेटी को संपत्ति से बेदखल कर दिया था। बताया गया है कि उक्त बेटी ने समुदाय से बाहर शादी की थी। जस्टिस अहसानुद्दीन अमानुल्लाह और जस्टिस के. विनोद चंद्रन की पीठ ने स्पष्ट किया कि वसीयतकर्ता (Testator) की इच्छा सर्वोपरि होती है और इसे ‘इक्विटी’ (साम्य या बराबरी) के आधार पर विफल नहीं किया जा सकता।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वसीयतकर्ता की अंतिम इच्छा को बदला नहीं जा सकता, भले ही वह किसी वारिस को बेदखल करने वाली हो। अदालत ने माना कि गवाह की गवाही, जिसमें जिरह (cross-examination) भी शामिल है, ने वसीयत के निष्पादन (execution) को पूरी तरह साबित कर दिया है।
मामले की पृष्ठभूमि (Background)
यह विवाद एन.एस. श्रीधरन की संपत्ति से जुड़ा है। उन्होंने 26 मार्च, 1988 को एक वसीयत (Exhibit B2) निष्पादित की थी, जिसे अगले ही दिन पंजीकृत कराया गया था। इस वसीयत के जरिए उन्होंने अपनी संपत्ति अपने आठ बच्चों (प्रतिवादियों) को दे दी, जबकि वादी (मौजूदा अपील में प्रतिवादी/बेटी) को इससे बाहर रखा गया।
वर्ष 1990 में, वसीयत के लाभार्थियों ने वादी के खिलाफ एक निषेधाज्ञा (injunction) का मुकदमा दायर किया था ताकि वह संपत्ति में हस्तक्षेप न करे। उस समय वादी ने मुकदमे का विरोध नहीं किया और उनके खिलाफ एक पक्षीय फैसला सुनाया गया।
दशकों बाद, 2011 में, वादी बेटी ने अपने पिता की संपत्ति के बंटवारे की मांग करते हुए एक नया मुकदमा दायर किया। प्रतिवादियों ने 1988 की वसीयत का हवाला दिया। ट्रायल कोर्ट ने वादी के पक्ष में फैसला सुनाया। निचली अदालत का तर्क था कि वसीयत के एकमात्र जीवित गवाह (DW-2) ने केवल अपने हस्ताक्षर और वसीयतकर्ता के हस्ताक्षर की पुष्टि की, लेकिन दूसरे गवाह (जो अब जीवित नहीं था) के हस्ताक्षर के बारे में पर्याप्त गवाही नहीं दी।
हाईकोर्ट ने भी इस फैसले को बरकरार रखा। हाईकोर्ट ने कहा कि हालांकि DW-2 ने जिरह (cross-examination) के दौरान दूसरे गवाह की उपस्थिति को स्वीकार किया था, लेकिन यह जवाब एक ‘सूचक प्रश्न’ (leading question) के उत्तर में दिया गया था, इसलिए इसका कोई साक्ष्यिक मूल्य (probative value) नहीं है।
पक्षों की दलीलें (Arguments)
अपीलकर्ता (प्रतिवादी): अपीलकर्ताओं ने तर्क दिया कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 68 और भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 की धारा 63 की सभी शर्तें पूरी की गई हैं। उन्होंने कहा कि गवाह (DW-2) ने वसीयतकर्ता के हस्ताक्षर, अपने स्वयं के सत्यापन (attestation) और दूसरे गवाह की उपस्थिति के बारे में बताया है। उन्होंने दलील दी कि वसीयत को गलत ठहराने के लिए बयानों को संदर्भ से बाहर लिया गया।
प्रतिवादी (वादी): वादी ने तर्क दिया कि वसीयत साबित नहीं हुई है क्योंकि DW-2 की गवाही में विरोधाभास था। उन्होंने कहा कि गवाह ने दावा किया कि वह वसीयतकर्ता के घर केवल एक बार गया था, जबकि वसीयत 26 मार्च की थी और पंजीकरण 27 मार्च को हुआ था। उन्होंने मीना प्रधान बनाम कमला प्रधान और रानी पूर्णिमा देवी जैसे पिछले फैसलों का हवाला देते हुए तर्क दिया कि सत्यापन की कानूनी आवश्यकताएं पूरी नहीं हुईं।
कोर्ट का विश्लेषण (Court’s Analysis)
सुप्रीम कोर्ट ने गवाह (DW-2) के बयान का बारीकी से विश्लेषण किया। पीठ ने पाया कि भले ही मुख्य परीक्षा (examination-in-chief) में गवाह ने स्पष्ट रूप से यह नहीं कहा था कि दूसरे गवाह ने वसीयत पर हस्ताक्षर किए थे, लेकिन “यह कमी वादी द्वारा की गई जिरह में पूरी हो गई थी।”
जिरह के दौरान, जब गवाह से पूछा गया कि क्या उसने और ‘अन्य लोगों’ ने उस तारीख को वसीयत पर हस्ताक्षर किए थे जब इसे लिखा गया था, तो उसने ‘हां’ में उत्तर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के इस दृष्टिकोण को खारिज कर दिया कि जिरह में पूछे गए ‘सूचक प्रश्नों’ (leading questions) के उत्तर का महत्व कम होता है।
कोर्ट ने कहा:
“जिरह में सूचक प्रश्नों की अनुमति होती है और इससे प्राप्त उत्तर का साक्ष्यिक मूल्य कम नहीं कहा जा सकता, जैसा कि हाईकोर्ट ने माना था।”
वसीयत के निष्पादन और पंजीकरण की तारीखों में कथित विसंगति पर, कोर्ट ने कहा कि गवाही वसीयत लिखे जाने के 24 साल बाद हुई थी। एच. एच. महाराजा भानु प्रकाश सिंह बनाम टीका योगेंद्र चंद्र मामले का हवाला देते हुए, पीठ ने कहा कि लंबे समय के बाद छोटी-मोटी विसंगतियां होना स्वाभाविक है।
कोर्ट ने टिप्पणी की:
“यह सोचना बचकाना होगा कि गवाह को वसीयत के निष्पादन के लिए भी वसीयतकर्ता के घर की गई यात्राओं को गणितीय सटीकता के साथ याद रखना चाहिए था।”
अदालत ने यह भी कहा कि वसीयतकर्ता मानसिक रूप से स्वस्थ था और वसीयत पर एकमात्र ‘संदेह’ यह उठाया गया था कि एक बेटी को बेदखल क्यों किया गया। कोर्ट ने दृढ़ता से कहा कि वह वसीयतकर्ता की इच्छा की जगह अपनी राय नहीं थोप सकता।
“वसीयत के समर्थकों ने बताया है कि जिसे बेदखल किया गया, वह उनकी बहन है। इस बेदखली का एक कारण बताया गया है (समुदाय से बाहर विवाह)। हमारे विचार में उस कारण की स्वीकार्यता वह नहीं है जो ‘विवेक का नियम’ (rule of prudence) तय करता है। हम खुद को वसीयतकर्ता की जगह नहीं रख सकते और हमें उसके नजरिए से देखना चाहिए।”
निर्णय (Decision)
सुप्रीम कोर्ट ने अपीलों को स्वीकार करते हुए हाईकोर्ट और ट्रायल कोर्ट के फैसलों को रद्द कर दिया। कोर्ट ने माना कि वसीयत स्पष्ट रूप से साबित हो चुकी है और वादी का अपने पिता की संपत्तियों पर बंटवारे का कोई दावा नहीं बनता।
वादी की इस दलील पर कि उसे कानूनन कुल संपत्ति का केवल 1/9वां हिस्सा ही मिलना चाहिए जो बहुत कम है, कोर्ट ने सख्त टिप्पणी की:
“हम यहां इक्विटी (साम्य) पर फैसला नहीं कर रहे हैं, और वसीयतकर्ता की इच्छा को ही प्राथमिकता मिलती है। वसीयतकर्ता की अंतिम वसीयत और वसीयतनामा से भटका नहीं जा सकता और न ही उसे विफल किया जा सकता है।”
अंततः, वादी द्वारा दायर मुकदमा खारिज कर दिया गया।
केस का विवरण:
- केस टाइटल: के. एस. दिनाचंद्रन बनाम शायला जोसेफ और अन्य
- केस नंबर: सिविल अपील संख्या 2025 (@SLP (C) Nos. 11057-11058 of 2025)
- कोरम: जस्टिस अहसानुद्दीन अमानुल्लाह और जस्टिस के. विनोद चंद्रन
- साइटेशन: 2025 INSC 1451

