सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को अपने 2014 के संविधान पीठ के फैसले, प्रमति एजुकेशनल एंड कल्चरल ट्रस्ट बनाम भारत संघ, की सत्यता पर “गंभीर संदेह” व्यक्त किया। उस फैसले में सभी अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों को शिक्षा का अधिकार (आरटीई) अधिनियम, 2009 के प्रावधानों से पूरी तरह छूट दी गई थी। न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति मनमोहन की दो-न्यायाधीशों की पीठ ने इस मुद्दे को पुनर्विचार के लिए एक बड़ी बेंच को भेज दिया है।
इसके साथ ही, न्यायालय ने शिक्षक पात्रता परीक्षा (टीईटी) पर एक निश्चित निर्णय सुनाते हुए इसे सभी गैर-अल्पसंख्यक स्कूलों में शिक्षकों की नई नियुक्तियों और पदोन्नति दोनों के लिए एक अनिवार्य योग्यता करार दिया। न्यायालय ने मौजूदा सेवारत शिक्षकों को यह योग्यता हासिल करने के लिए एक संक्रमणकालीन रूपरेखा प्रदान करने हेतु संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अपनी शक्तियों का उपयोग किया।
मामले की पृष्ठभूमि
यह फैसला बॉम्बे और मद्रास हाईकोर्ट के परस्पर विरोधी निर्णयों से उत्पन्न दीवानी अपीलों के एक समूह पर सुनाया गया। इसमें शामिल मुख्य मुद्दे थे:

- क्या राज्य अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों को केवल उन्हीं शिक्षकों की नियुक्ति के लिए मजबूर कर सकता है जिन्होंने टीईटी उत्तीर्ण की हो।
- क्या आरटीई अधिनियम के लागू होने से पहले नियुक्त और महत्वपूर्ण शिक्षण अनुभव रखने वाले शिक्षकों को पदोन्नति के योग्य होने के लिए टीईटी उत्तीर्ण करना आवश्यक है।
अपीलकर्ताओं में टीईटी की अनिवार्यता को चुनौती देने वाले अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थान, शैक्षिक मानकों को बनाए रखने के लिए इसके सार्वभौमिक आवेदन पर जोर देने वाले राज्य प्राधिकरण, और अपने करियर में उन्नति के लिए टीईटी की आवश्यकता से व्यथित व्यक्तिगत सेवारत शिक्षक शामिल थे। बॉम्बे हाईकोर्ट ने एक फैसले में अल्पसंख्यक स्कूलों के लिए टीईटी की आवश्यकता को बरकरार रखा था, जबकि मद्रास हाईकोर्ट ने प्रमति फैसले का पालन करते हुए आरटीई अधिनियम और इसकी आवश्यकताओं को ऐसे संस्थानों पर लागू नहीं माना था।
पक्षों की दलीलें
प्रमति के पुनर्विचार और टीईटी की अनिवार्यता का विरोध करने वाले वकीलों ने तर्क दिया कि अनुच्छेद 21ए (शिक्षा का अधिकार) के तहत बनाया गया कोई भी कानून अनुच्छेद 30(1) के तहत अल्पसंख्यक संस्थानों के मौलिक अधिकारों को समाप्त नहीं कर सकता है। उन्होंने तर्क दिया कि टीईटी केवल एक पात्रता परीक्षा है, आरटीई अधिनियम की धारा 23 के तहत ‘न्यूनतम योग्यता’ नहीं, और पदोन्नति के लिए इसे लागू करना पूर्वव्यापी रूप से निहित अधिकारों को हटाने के बराबर होगा।
दूसरी ओर, भारत के अटॉर्नी जनरल, अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल और अन्य वरिष्ठ वकीलों ने प्रमति पर पुनर्विचार के लिए तर्क दिया। उन्होंने कहा कि प्रत्येक बच्चे को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का अधिकार सर्वोपरि है और अनुच्छेद 30(1) अल्पसंख्यक संस्थानों को कुप्रबंधन करने या राष्ट्रीय मानकों की अनदेखी करने का अधिकार नहीं देता है। यह तर्क दिया गया कि अल्पसंख्यक स्कूलों को आरटीई अधिनियम से छूट देना अनुच्छेद 14 और 21ए का उल्लंघन है क्योंकि यह एक अनुचित वर्गीकरण बनाता है और उन स्कूलों में बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा से वंचित करता है।
न्यायालय का विश्लेषण
पीठ ने एक विस्तृत विश्लेषण में, शिक्षा के अधिकार की संवैधानिक यात्रा को एक निर्देशक सिद्धांत से अनुच्छेद 21ए के तहत एक मौलिक अधिकार तक रेखांकित किया, और आरटीई अधिनियम को “एक लंबे समय से लंबित वादे की जीवंत अभिव्यक्ति” बताया।
अनुच्छेद 21ए और अनुच्छेद 30(1) के बीच टकराव पर
न्यायालय ने विचार व्यक्त किया कि शिक्षा के अधिकार (अनुच्छेद 21ए) और अल्पसंख्यकों के संस्थानों की स्थापना और प्रशासन के अधिकार (अनुच्छेद 30(1)) के बीच कोई अंतर्निहित टकराव नहीं है। पीठ ने कहा कि अनुच्छेद 30(1) का लक्ष्य सांस्कृतिक और भाषाई पहचान को संरक्षित करना है, न कि “संस्थानों को बच्चों के सर्वोत्तम हित में बनाए गए कानूनों से अयोग्य छूट प्रदान करना।”
पीठ ने प्रमति के फैसले की आलोचनात्मक जांच की और पाया कि संविधान पीठ ने केवल धारा 12(1)(सी) के विश्लेषण के आधार पर पूरे आरटीई अधिनियम को अल्पसंख्यक संस्थानों पर लागू नहीं माना। न्यायालय ने इस निष्कर्ष को कानूनी रूप से संदिग्ध पाया।
शिक्षक पात्रता परीक्षा (टीईटी) पर
न्यायालय ने माना कि टीईटी शिक्षकों के लिए एक अनिवार्य न्यूनतम योग्यता है। इसने इस तर्क को खारिज कर दिया कि आरटीई अधिनियम की धारा 23 में ‘नियुक्ति’ का अर्थ केवल प्रारंभिक भर्ती है। फैसले में स्पष्ट किया गया कि ‘नियुक्ति’ शब्द व्यापक है और इसमें पदोन्नति भी शामिल है।
संदर्भ का आदेश और अंतिम निर्णय
प्रमति फैसले की सत्यता पर संदेह व्यक्त करते हुए, पीठ ने निम्नलिखित प्रश्नों को एक बड़ी बेंच द्वारा विचार के लिए संदर्भित किया:
- क्या प्रमति के फैसले, जिसमें सभी अल्पसंख्यक संस्थानों को आरटीई अधिनियम से छूट दी गई है, पर पुनर्विचार की आवश्यकता है।
- क्या आरटीई अधिनियम अनुच्छेद 30(1) के तहत अल्पसंख्यकों के अधिकारों का उल्लंघन करता है।
- प्रमति के फैसले में अनुच्छेद 29(2) (राज्य सहायता प्राप्त संस्थानों में प्रवेश से इनकार पर रोक) पर विचार न करने का प्रभाव।
- क्या पूरे आरटीई अधिनियम को अल्पसंख्यक अधिकारों के विरुद्ध घोषित किया जाना चाहिए था, जबकि प्रमति फैसले में केवल धारा 12(1)(सी) की असंवैधानिकता पर चर्चा की गई थी।
गैर-अल्पसंख्यक स्कूलों में सेवारत शिक्षकों के लिए टीईटी पर अंतिम आदेश
बड़ी बेंच के फैसले तक, अदालत ने गैर-अल्पसंख्यक स्कूलों के लिए एक बाध्यकारी आदेश जारी किया:
- पदोन्नति और नई नियुक्तियों के लिए: किसी भी शिक्षक के लिए नियुक्ति या पदोन्नति हेतु टीईटी उत्तीर्ण करना अनिवार्य है।
- मौजूदा सेवारत शिक्षकों के लिए:
- जिन शिक्षकों की सेवा में पांच साल से कम का समय बचा है, उन्हें सेवानिवृत्ति तक सेवा में बने रहने के लिए टीईटी उत्तीर्ण करने से छूट दी गई है। हालांकि, टीईटी योग्यता के बिना उन्हें पदोन्नति के लिए विचार नहीं किया जाएगा।
- जिन शिक्षकों की सेवा में पांच साल से अधिक का समय बचा है, उन्हें अपनी सेवा में बने रहने के लिए फैसले की तारीख से दो साल के भीतर टीईटी उत्तीर्ण करना होगा। ऐसा करने में विफल रहने पर अनिवार्य सेवानिवृत्ति होगी।