‘गैर-निर्धारणीय’ अनुबंध की एकतरफा समाप्ति को चुनौती दिए बिना भी विशिष्ट निष्पादन का मुकदमा पोषणीय: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में यह स्पष्ट किया है कि यदि कोई बिक्री समझौता (Agreement to Sell – ATS) “प्रकृति में निर्धारणीय” (in its nature determinable) नहीं है, तो उस समझौते की एकतरफा समाप्ति को विशेष रूप से चुनौती दिए बिना भी ‘विशिष्ट निष्पादन’ (Specific Performance) के लिए मुकदमा दायर किया जा सकता है।

के.एस. मंजुनाथ एवं अन्य बनाम मूरसवीरप्पा मुत्तन्ना चेन्नप्पा बाटिला (मृत) एवं अन्य मामले में फैसला सुनाते हुए, जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और जस्टिस आर. महादेवन की बेंच ने संपत्ति के बाद के खरीदारों द्वारा दायर अपीलों को खारिज कर दिया। कोर्ट ने मूल खरीदारों के पक्ष में विशिष्ट निष्पादन का निर्देश देने वाले हाईकोर्ट के फैसले को बरकरार रखा। सुप्रीम कोर्ट ने यह माना कि बाद के खरीदारों को पिछले समझौते की स्पष्ट जानकारी (नोटिस) थी, इसलिए उन्हें विशिष्ट राहत अधिनियम, 1963 की धारा 19(b) के तहत “सद्भावी खरीदार” (bona fide purchaser) नहीं माना जा सकता।

पृष्ठभूमि और मामले के तथ्य

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यह पूरा विवाद 28.04.2000 को हुए एक अपंजीकृत बिक्री समझौते (ATS) से शुरू हुआ। इस समझौते के तहत, “मूल विक्रेताओं” (प्रतिवादी संख्या 6-13) ने अपनी 354 एकड़ कृषि भूमि “मूल खरीदारों” (प्रतिवादी संख्या 1-5 और 15-22) को 26,95,501/- रुपये में बेचने पर सहमति व्यक्त की। खरीदारों ने शुरुआत में 2,00,000/- रुपये बयाना राशि दी और कुल मिलाकर 8,12,500/- रुपये का भुगतान किया।

अंतिम बिक्री विलेख (sale deed) का निष्पादन इस बात पर निर्भर था कि विक्रेता भूमि के कार्यकाल को बदलने, सर्वेक्षण करने और 19 किरायेदारों को स्थानांतरित करने जैसे कुछ कार्य पूरे करेंगे।

इसी बीच, 11.04.2001 को एक तीसरे पक्ष द्वारा दायर एक अलग बंटवारे के मुकदमे (O.S. No. 30 of 2001) में उक्त भूमि पर ‘यथास्थिति’ (status quo) बनाए रखने का आदेश पारित हो गया।

इस मुकदमे के लंबित रहने के दौरान, मूल विक्रेताओं ने 10.03.2003 को मूल खरीदारों को एक “समाप्ति नोटिस” (Notice of Termination) जारी किया। नोटिस में लंबित मुकदमे, यथास्थिति के आदेश और एक विक्रेता की मृत्यु को अनुबंध पूरा न कर पाने का कारण बताया गया। इसमें खरीदारों से एक महीने के भीतर अपनी बयाना राशि वापस लेने को कहा गया, ऐसा न करने पर ATS को “रद्द माना जाएगा”।

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मूल खरीदारों ने 21.03.2003 को इस नोटिस का जवाब देते हुए समाप्ति को अमान्य बताया। उन्होंने जोर देकर कहा कि वे अनुबंध पूरा करने के लिए तैयार और इच्छुक हैं, यथास्थिति के आदेश से अनुबंध केवल निलंबित हुआ है, और एक विक्रेता की मृत्यु से ATS समाप्त नहीं होता। इस जवाब पर विक्रेताओं ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी।

14.02.2007 को, बंटवारे का मुकदमा (O.S. No. 30 of 2001) वापस ले लिया गया और यथास्थिति का आदेश समाप्त हो गया। इसके कुछ ही दिनों बाद, 20.02.2007 और 02.03.2007 को, मूल विक्रेताओं ने वही संपत्ति “बाद के खरीदारों” (मौजूदा अपीलकर्ता) को 71,00,000/- रुपये में बेच दी।

इसके बाद मूल खरीदारों ने O.S. No. 36 of 2007 दायर करके 2000 के ATS के ‘विशिष्ट निष्पादन’ की मांग की। ट्रायल कोर्ट ने यह मानते हुए विशिष्ट निष्पादन से इनकार कर दिया कि बाद के खरीदार सद्भावी थे, लेकिन बयाना राशि वापस करने का आदेश दिया। कर्नाटक हाईकोर्ट ने इस फैसले को पलट दिया, विशिष्ट निष्पादन की अनुमति दी और यह माना कि बाद के खरीदार सद्भावी नहीं थे क्योंकि उन्हें पिछले ATS की जानकारी थी। बाद के खरीदारों ने इसी फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की।

सुप्रीम कोर्ट के समक्ष तर्क

अपीलकर्ताओं (बाद के खरीदारों) की मुख्य दलील यह थी कि यह मुकदमा सुनवाई योग्य ही नहीं है, क्योंकि मूल खरीदारों ने 10.03.2003 के समाप्ति नोटिस को अवैध घोषित करने की मांग नहीं की थी (जैसा कि आई.एस. सिकंदर (मृत) बनाम के. सुब्रमणि मामले में निर्धारित किया गया था)। उन्होंने यह भी तर्क दिया कि वे बिना किसी सूचना के सद्भावपूर्वक खरीदार थे।

इसके विपरीत, मूल खरीदारों (प्रतिवादियों) ने तर्क दिया कि हाईकोर्ट का फैसला सही था। उन्होंने दलील दी कि बाद के खरीदारों ने खुद स्वीकार किया कि उन्हें समाप्ति नोटिस दिखाया गया था, जिससे उन्हें पिछले ATS की सीधी सूचना मिल गई थी। उन्होंने तर्क दिया कि समाप्ति एकतरफा थी जिसे तुरंत चुनौती दी गई थी।

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सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण और निष्कर्ष

जस्टिस जे.बी. पारदीवाला द्वारा लिखे गए इस फैसले में, कोर्ट ने तीन प्रमुख कानूनी सवालों का गहराई से विश्लेषण किया:

1. बिना समाप्ति को चुनौती दिए मुकदमे की पोषणीयता

कोर्ट ने माना कि केंद्रीय प्रश्न यह था कि क्या ATS “प्रकृति में निर्धारणीय” (in its nature determinable) था। विभिन्न हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के फैसलों (जिसमें अन्नामलाई बनाम वसंती भी शामिल है) की समीक्षा करने के बाद, बेंच ने कानूनी स्थिति को स्पष्ट किया:

  • यदि कोई अनुबंध समाप्त करने का अधिकार देता है (यानि निर्धारणीय है) और एक पक्ष उस अधिकार का प्रयोग करता है, तो “अनुबंध के अस्तित्व पर संदेह/बादल” पैदा होता है। ऐसे मामलों में, वादी को यह घोषणा करानी होगी कि समाप्ति अवैध है।
  • लेकिन, यदि अनुबंध “एकतरफा समाप्ति का कोई अधिकार नहीं देता” है और प्रकृति में निर्धारणीय नहीं है (जैसे लाइसेंस या इच्छा पर साझेदारी), तो ऐसी एकतरफा समाप्ति को “अनुबंध का उल्लंघन (breach of contract) या निराकरण (repudiation)” माना जाएगा।

कोर्ट ने स्पष्ट किया कि ऐसी स्थिति में पीड़ित पक्ष “अनुबंध को जारी मानते हुए, सीधे विशिष्ट निष्पादन के लिए मुकदमा कर सकता है” और उसे समाप्ति को अवैध घोषित कराने की आवश्यकता नहीं है।

तथ्यों पर इसे लागू करते हुए, कोर्ट ने पाया कि यह ATS गैर-निर्धारणीय था। कोर्ट ने कहा, “ATS में सुविधा के लिए या अन्यथा किसी भी पक्ष को एकतरफा अनुबंध समाप्त करने का अधिकार देने वाला कोई क्लॉज नहीं था।” विक्रेताओं द्वारा दिए गए कारण (लंबित मुकदमा, मृत्यु) को “कमजोर,” “पूरी तरह से बाहरी” और सुविधा के लिए एक “आवरण” (cloak) मात्र माना गया।

2. बाद के खरीदारों की ‘सद्भावना’ (Bona Fides)

कोर्ट ने पाया कि बाद के खरीदार विशिष्ट राहत अधिनियम की धारा 19(b) के तहत “सद्भावी खरीदार” नहीं थे। उनका यह स्वीकार करना कि उन्हें समाप्ति नोटिस दिखाया गया था, “निर्णायक महत्व” का था।

कोर्ट ने कहा कि इस नोटिस ने उन्हें पिछले अनुबंध, पार्टियों, बयाना राशि और विवाद के तथ्यों की “वास्तविक सूचना” (actual notice) दे दी थी। कोर्ट ने टिप्पणी की, “‘सद्भावना’ (Good faith) के लिए ‘उचित देखभाल और ध्यान’ (due care and attention) की आवश्यकता होती है।” एक विवेकपूर्ण खरीदार को और पूछताछ करनी चाहिए थी।

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कोर्ट ने कहा, “उक्त समाप्ति नोटिस में ही सभी मूल खरीदारों के नाम और पते थे… वे थोड़ी सी कोशिश से मूल खरीदारों से संपर्क कर सकते थे… जांच से उनका यह जानबूझकर बचना… ‘जानबूझकर पूछताछ से परहेज’ (wilful abstention from inquiry) या ‘घोर लापरवाही’ (gross negligence) माना जाएगा।”

3. मूल खरीदारों की तैयारी और इच्छा

कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट के इस तथ्यात्मक खोज की पुष्टि की कि मूल खरीदार अनुबंध के अपने हिस्से को पूरा करने के लिए हमेशा तैयार और इच्छुक थे। उनके द्वारा 8,12,500/- रुपये का भुगतान, समाप्ति नोटिस का तुरंत जवाब देना और मुकदमा दायर करना, यह सब साबित करता है।

अंतिम निर्णय और निर्देश

सुप्रीम कोर्ट ने अपीलों को खारिज कर दिया। हालांकि, “पर्याप्त न्याय करने की दृष्टि से” (क्योंकि बाद की बिक्री को लगभग 18 वर्ष बीत चुके हैं), कोर्ट ने निम्नलिखित निर्देश जारी किए:

  1. मूल खरीदार (प्रतिवादी 1-5 और 15-22) बाद के खरीदारों (अपीलकर्ता) को शेष बिक्री राशि 18,83,001/- रुपये के साथ 28.04.2000 (ATS की तारीख) से 16% प्रति वर्ष की दर से ब्याज का भुगतान करेंगे।
  2. मूल खरीदार, बाद के खरीदारों को उपरोक्त राशि के अतिरिक्त 5,00,00,000/- (पांच करोड़ रुपये) की राशि का भी भुगतान करेंगे।
  3. ये दोनों भुगतान छह महीने के भीतर किए जाने चाहिए।
  4. केवल इन भुगतानों के पूरा होने के बाद ही अपीलकर्ता (बाद के खरीदार) मूल खरीदारों के पक्ष में बिक्री विलेख (sale deed) निष्पादित करेंगे और उन्हें जमीन का खाली कब्जा सौंपेंगे।

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