जब पीड़िता गवाही से मुकर जाए तो केवल FIR के आरोपों पर सजा नहीं दी जा सकती; सुप्रीम कोर्ट ने रेप के आरोपी डॉक्टर को बरी किया

सुप्रीम कोर्ट ने रेप के आरोप में सजा काट रहे एक डॉक्टर को बरी करते हुए स्पष्ट किया है कि केवल फर्स्ट इंफॉर्मेशन रिपोर्ट (FIR) में लगाए गए आरोपों को तब तक सत्य नहीं माना जा सकता, जब तक कि मुकदमे के दौरान ठोस सबूतों (Cogent Evidence) द्वारा उन्हें साबित न किया जाए। जस्टिस संजय करोल और जस्टिस विपुल एम. पंचोली की पीठ ने पाया कि जब पीड़िता (Prosecutrix) स्वयं अपने बयानों से मुकर गई हो (Hostile) और मेडिकल सबूत अभियोजन पक्ष के दावे का समर्थन न करते हों, तो केवल पुलिस की कहानी के आधार पर सजा देना कानूनन गलत है।

सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात हाईकोर्ट और निचली अदालत के उस फैसले को रद्द कर दिया, जिसमें आरोपी डॉक्टर को दोषी ठहराया गया था। गौर करने वाली बात यह है कि गुजरात हाईकोर्ट ने न केवल दोषसिद्धि को बरकरार रखा था, बल्कि डॉक्टर की सजा को छह साल से बढ़ाकर दस साल के कठोर कारावास में बदल दिया था।

मामले की पृष्ठभूमि

यह मामला गुजरात के हिम्मतनगर का है। अभियोजन पक्ष के अनुसार, 8 मई 2001 को शिकायतकर्ता (पीड़िता) पेट दर्द के इलाज के लिए अपने पति के साथ अपीलकर्ता डॉक्टर की डिस्पेंसरी में गई थी। आरोप था कि डॉक्टर ने जांच के बहाने पीड़िता को ऑपरेशन रूम में ले जाकर उसके साथ जबरन शारीरिक संबंध बनाए। यह भी कहा गया कि विरोध करने पर पीड़िता की गर्दन पर खरोंचें आई थीं।

पीड़िता द्वारा दर्ज कराई गई FIR के आधार पर जांच हुई और चार्जशीट दाखिल की गई। ट्रायल कोर्ट ने डॉक्टर को भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 376(2)(d) के तहत दोषी मानते हुए छह साल के कठोर कारावास की सजा सुनाई थी। इसके बाद मामला गुजरात हाईकोर्ट पहुंचा, जहां अदालत ने डॉक्टर की अपील खारिज कर दी और राज्य सरकार की अपील पर सजा को बढ़ाकर दस साल कर दिया।

READ ALSO  Coal Scam | Supreme Court Imposes Rs 1 Lakh Fine on Central Government For Wrongly Including Name of a Company in List of Illegal Allottees

पक्षों की दलीलें

अपीलकर्ता डॉक्टर के वकील ने तर्क दिया कि अभियोजन का पूरा मामला संदिग्ध है क्योंकि मुख्य गवाह यानी पीड़िता (PW-1) और उसका पति (PW-2) अदालत में गवाही के दौरान अभियोजन का समर्थन नहीं कर सके और उन्हें ‘होस्टाइल’ (पक्षद्रोही) घोषित किया गया था। वकील ने दलील दी कि हाईकोर्ट ने प्रत्यक्ष सबूतों के अभाव में मामले को परिस्थितिजन्य साक्ष्यों (Circumstantial Evidence) का मामला बना दिया और गलत धारणा बना ली कि गवाहों को “खरीद लिया गया” है।

अपीलकर्ता की ओर से ललिता बनाम विश्वनाथ और रेणुका प्रसाद बनाम स्टेट जैसे फैसलों का हवाला देते हुए कहा गया कि जांच अधिकारी (IO) वह साबित नहीं कर सकता जो गवाह खुद अदालत में साबित करने में विफल रहे हों। इसके अलावा, पंच गवाहों ने भी पुलिस की कहानी का समर्थन नहीं किया था।

दूसरी ओर, राज्य की ओर से पेश अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल (ASG) ने सजा का बचाव किया। उन्होंने तर्क दिया कि डॉ. विनोद कावजीभाई वरसात (PW-7) ने पीड़िता की गर्दन पर खरोंच के निशान देखे थे। साथ ही, फॉरेंसिक साइंस लेबोरेटरी (FSL) की रिपोर्ट का हवाला दिया गया, जिसमें दावा किया गया था कि पीड़िता और आरोपी के कपड़ों पर मिले दाग ‘ग्रुप बी’ के थे, जो आरोपी का ब्लड ग्रुप था।

READ ALSO  खेल का मैदान न होने वाले स्कूलों को बंद करे सरकार, पाठ्यक्रम में खेलकूद शामिल होना चाहिए: केरल हाईकोर्ट

सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण

सुप्रीम कोर्ट ने सबूतों की बारीकी से जांच की और निचली अदालतों के निष्कर्षों में गंभीर त्रुटियां पाईं। पीठ ने कहा कि किसी गवाह के मुकर जाने पर अदालत को बहुत सावधानी से आगे बढ़ना चाहिए और अन्य सबूतों से पुष्टि (Corroboration) तलाशनी चाहिए।

मेडिकल और फॉरेंसिक सबूतों की असलियत

हाईकोर्ट ने कपड़ों की बरामदगी और FSL रिपोर्ट पर बहुत भरोसा किया था। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि बरामदगी के पंच गवाहों (PW-3 और PW-4) ने साफ कहा था कि पुलिस ने उनसे कोरे कागजों पर हस्ताक्षर कराए थे और उन्हें विषय-वस्तु की जानकारी नहीं थी। कोर्ट ने कहा, “इस प्रकार, हाईकोर्ट ने आरोपी और पीड़िता के कपड़ों पर मिले दागों पर भरोसा करके गलती की है।”

मेडिकल सबूतों पर कोर्ट ने नोट किया कि डॉ. रीता सिन्हा (PW-6) आरोपी का वीर्य (Semen) का नमूना लेने में विफल रही थीं। वहीं, पीड़िता की जांच करने वाले डॉ. वरसात (PW-7) ने गवाही दी कि पीड़िता के निजी अंगों पर चोट का कोई निशान नहीं था और न ही वीर्य या खून के अंश मिले थे। क्रॉस-एग्जामिनेशन में डॉक्टर ने स्वीकार किया कि “हाल ही में शारीरिक संबंध बनाने का कोई संकेत नहीं मिला है।”

होस्टाइल गवाह और कानूनी सिद्धांत

सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट की उस धारणा की आलोचना की जिसमें माना गया था कि पीड़िता इसलिए मुकर गई क्योंकि उसे आरोपी ने मिला लिया था। पीठ ने स्पष्ट शब्दों में कहा:

READ ALSO  समझौते के उल्लंघन के आधार पर धारा 482 सीआरपीसी के तहत एफआईआर रद्द करने के आदेश को वापस नहीं लिया जा सकता: सुप्रीम कोर्ट

“हमारा मत है कि जब अभियोजन पक्ष का मुख्य गवाह, यानी स्वयं पीड़िता, मामले का समर्थन नहीं करती है, तो अदालत के लिए यह अनुमान लगाना खुला नहीं है कि उसने आरोपी द्वारा प्रभावित होने के कारण समर्थन नहीं किया।”

कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण कानूनी सिद्धांत स्थापित करते हुए कहा कि केवल इसलिए कि FIR में आरोप लगाए गए हैं और जांच अधिकारी ने उनकी पुष्टि की है, उन्हें सत्य नहीं माना जा सकता।

“केवल इसलिए कि पीड़िता ने FIR में आरोप लगाए हैं… यह नहीं माना जा सकता कि वे आरोप सत्य और सही हैं, जब तक कि मुकदमे के दौरान ठोस सबूतों (Cogent Evidence) द्वारा उन्हें साबित नहीं किया जाता।”

फैसला

सुप्रीम कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि अभियोजन पक्ष मामले को संदेह से परे साबित करने में विफल रहा है। ट्रायल कोर्ट और हाईकोर्ट ने बिना पर्याप्त सबूतों के दोषसिद्धि दर्ज करके गलती की है। तदनुसार, अपील स्वीकार की गई और आरोपी डॉक्टर को सभी आरोपों से बरी कर दिया गया।

केस डिटेल्स

केस टाइटल: जयंतीभाई चतुरभाई पटेल बनाम गुजरात राज्य

केस नंबर: क्रिमिनल अपील नंबर 890-891 ऑफ 2017

कोरम: जस्टिस संजय करोल और जस्टिस विपुल एम. पंचोली

साइटेशन: 2025 INSC 1443

Law Trend
Law Trendhttps://lawtrend.in/
Legal News Website Providing Latest Judgments of Supreme Court and High Court

Related Articles

Latest Articles