नई दिल्ली, 29 जनवरी 2025: सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा कि सरकारी वकीलों और लोक अभियोजकों की नियुक्ति सिर्फ योग्यता के आधार पर होनी चाहिए, न कि राजनीतिक सिफारिशों या भाई-भतीजावाद के तहत। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि इन पदों पर अयोग्य व्यक्तियों की नियुक्ति न्यायिक प्रक्रिया को प्रभावित कर सकती है और न्याय प्रणाली की निष्पक्षता को नुकसान पहुंचा सकती है।
न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि सरकारी वकीलों की नियुक्ति यदि राजनीतिक आधार पर की जाती है, तो यह आपराधिक न्याय व्यवस्था की नींव को कमजोर कर सकती है। अदालत ने कहा कि अभियोजन पक्ष का कार्य केवल दोषसिद्धि कराना नहीं, बल्कि न्याय सुनिश्चित करना है।
गलत दोषसिद्धि पर न्यायालय की सख्त टिप्पणी
यह फैसला महाबीर एवं अन्य बनाम हरियाणा राज्य मामले में आया, जिसमें पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय द्वारा पूर्व में हुए दोषमुक्ति आदेश को पलटते हुए अभियुक्तों को बिना उचित सुनवाई के दोषी करार दे दिया गया था।
सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि इस मामले में कई गंभीर प्रक्रियागत त्रुटियाँ थीं, जिनमें शामिल हैं:
- फैसले के खिलाफ पुनरीक्षण याचिका में हाईकोर्ट द्वारा अभियुक्तों को दोषी ठहराना, जो कि दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 401(3) के तहत अवैध है।
- अभियुक्तों को नोटिस दिए बिना ही उनकी दोषसिद्धि।
- गवाहों के पुलिस बयान (CrPC धारा 161) को मुख्य साक्ष्य मानकर अदालत में दिए गए बयान की अनदेखी करना।
- बिना पर्याप्त तैयारी के कानूनी सहायता वकील की नियुक्ति।
इन प्रक्रियागत खामियों को ध्यान में रखते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने दोषसिद्धि को रद्द कर दिया और अभियुक्तों को तुरंत रिहा करने का आदेश दिया।
लोक अभियोजन प्रणाली पर कड़ी आलोचना
सुप्रीम कोर्ट ने लोक अभियोजकों (Public Prosecutors) की कार्यप्रणाली पर भी गंभीर सवाल उठाए। अदालत ने कहा कि अक्सर अभियोजन पक्ष की कमजोर दलीलें, अपर्याप्त जिरह, और सबूतों को सही तरीके से पेश न करने के कारण आरोपी बरी हो जाते हैं।
“लोक अभियोजक का कर्तव्य केवल दोषसिद्धि कराना नहीं, बल्कि न्याय दिलाना होता है,” अदालत ने टिप्पणी की। न्यायालय ने इस बात पर भी चिंता जताई कि कई मामलों में राजनीतिक दबाव के कारण कमजोर अभियोजन होता है, जिससे अपराधी बच निकलते हैं और निर्दोष लोग फंस जाते हैं।
सुधार की जरूरत पर जोर
सुप्रीम कोर्ट ने सरकारी वकीलों और अभियोजकों की नियुक्ति प्रक्रिया में सुधार करने की आवश्यकता पर जोर देते हुए सुझाव दिए:
- पारदर्शी और निष्पक्ष चयन प्रक्रिया अपनाई जाए।
- योग्यता, अनुभव और सत्यनिष्ठा को प्राथमिकता दी जाए।
- लोक अभियोजकों की नियमित ट्रेनिंग और मूल्यांकन किया जाए।
- स्वतंत्र निगरानी तंत्र विकसित किया जाए ताकि राजनीतिक हस्तक्षेप को रोका जा सके।
गलत सजा के लिए मुआवजा देने का आदेश
अदालत ने एक ऐतिहासिक कदम उठाते हुए तीनों अभियुक्तों को गलत तरीके से तीन महीने तक जेल में रखने के लिए मुआवजा देने का भी आदेश दिया।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में डी.के. बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (1997) और नीलबती बेहेरा बनाम उड़ीसा राज्य (1993) जैसे मामलों का हवाला देते हुए कहा कि यदि किसी व्यक्ति को अवैध रूप से हिरासत में रखा जाता है, तो उसे उचित मुआवजा मिलना चाहिए।
निष्कर्ष
यह फैसला न्याय व्यवस्था की निष्पक्षता बनाए रखने की दिशा में एक बड़ा कदम माना जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट कर दिया है कि सरकारी वकीलों की नियुक्ति केवल योग्यता के आधार पर होनी चाहिए, न कि राजनीतिक संबंधों के कारण।
इस फैसले के दूरगामी प्रभाव होने की संभावना है और यह सरकारी अभियोजकों की भर्ती एवं जवाबदेही को सुधारने में सहायक साबित हो सकता है।