भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण फैसले में यह स्पष्ट किया है कि क्या विभागीय कार्यवाही शुरू करने में अत्यधिक और बिना स्पष्टीकरण के देरी, अकेले ही चार्जशीट को रद्द करने का पर्याप्त आधार हो सकती है। यह फैसला सिविल अपील संख्या 10590/2024 में दिया गया, जिसका शीर्षक था अमरेश श्रीवास्तव बनाम मध्य प्रदेश राज्य व अन्य। न्यायालय ने पूर्व तहसीलदार अमरेश श्रीवास्तव की अपील स्वीकार करते हुए, उनके खिलाफ 14 वर्षों बाद जारी की गई चार्जशीट को निरस्त कर दिया।
न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ ने एकल न्यायाधीश के उस आदेश को पुनर्स्थापित किया, जिसमें विभागीय कार्यवाही को रद्द कर दिया गया था। साथ ही, न्यायालय ने अर्ध-न्यायिक अधिकारियों के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही के दायरे को स्पष्ट किया।
यह निर्णय मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय की द्वैध पीठ के फैसले को पलटता है, जिसने चार्जशीट को पुनर्जीवित किया था। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यदि देरी के साथ-साथ कदाचार का कोई प्रमाण न हो, तो विभागीय कार्यवाही अस्थिर मानी जा सकती है। यह फैसला विशेष रूप से उन सरकारी अधिकारियों के लिए महत्वपूर्ण है जो अर्ध-न्यायिक कार्य करते हैं।

मामले की पृष्ठभूमि
अमरेश श्रीवास्तव ने 15 जून 1981 को नायब तहसीलदार के रूप में राजस्व सेवा में प्रवेश किया और 31 दिसंबर 1991 को तहसीलदार पद पर पदोन्नत हुए। जुलाई 1993 से सितंबर 1998 के बीच ग्वालियर ज़िले में कार्यकाल के दौरान, 26 जून 1997 को उन्होंने एक भूमि का पट्टा आदेश पारित किया, जिसके तहत ग्राम बरुआ (सर्वे नं. 1123/Min-3) में कुबेर सिंह और मधो सिंह को 1.5 हेक्टेयर भूमि आवंटित की गई।
यह आदेश मध्य प्रदेश भू-राजस्व संहिता, 1959 की धारा 57(2) के तहत सभी वैधानिक प्रक्रियाओं का पालन करते हुए पारित किया गया था — नोटिस जारी किए गए, ग्राम पंचायत से परामर्श हुआ, और याचिकाकर्ताओं की खेती की दावेदारी की जांच की गई। आदेश के विरुद्ध कोई आपत्ति नहीं उठी और वह अंतिम रूप से वैध हो गया।
कई वर्षों बाद, 21 सितंबर 2009 को, ग्वालियर कलेक्टर ने एक कारण बताओ नोटिस जारी किया, जिसमें उक्त भूमि पट्टा को अवैध और राज्य को हानि पहुंचाने वाला बताया गया। इसके बाद 29 अप्रैल 2011 को श्रीवास्तव के विरुद्ध चार्जशीट जारी हुई, जिसमें ईमानदारी और कर्तव्य में लापरवाही का आरोप लगाया गया।
श्रीवास्तव ने वृत याचिका संख्या 7114/2011 के तहत मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय में याचिका दायर की और 13 वर्ष (सुप्रीम कोर्ट में इसे 14 वर्ष बताया गया) की देरी और बाहरी प्रभाव के कोई प्रमाण न होने का हवाला देते हुए कार्यवाही को चुनौती दी। उन्होंने न्यायाधीश संरक्षण अधिनियम, 1985 के तहत संरक्षण की मांग की, यह कहते हुए कि उनका कार्य अर्ध-न्यायिक था।
26 अप्रैल 2017 को, उच्च न्यायालय के एकल न्यायाधीश ने देरी को आधार मानते हुए चार्जशीट रद्द कर दी। राज्य सरकार ने इस आदेश के विरुद्ध अपील की, और 30 अप्रैल 2019 को द्वैध पीठ ने आदेश पलट दिया, यूनियन ऑफ इंडिया बनाम के.के. धवन (1993) मामले का हवाला देते हुए कहा कि अर्ध-न्यायिक अधिकारी की लापरवाही या पक्षपात पर अनुशासनात्मक कार्रवाई की जा सकती है। इसके बाद श्रीवास्तव ने सर्वोच्च न्यायालय का रुख किया।
प्रमुख कानूनी प्रश्न
सुप्रीम कोर्ट ने दो प्रमुख प्रश्नों पर विचार किया:
- अर्ध-न्यायिक अधिकारियों के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही का दायरा — क्या चार्जशीट में लगाए गए आरोप के.के. धवन मामले में बताए गए अपवादों के अंतर्गत आते हैं, या यह केवल एक गलत आदेश का मामला है, जो अनुशासनात्मक कार्यवाही योग्य नहीं?
- प्रक्रिया शुरू करने में देरी का प्रभाव — क्या 14 वर्षों की बिना कारण देरी, चार्जशीट स्तर पर ही विभागीय कार्यवाही को रद्द करने के लिए पर्याप्त है?
सुप्रीम कोर्ट का फैसला और टिप्पणियाँ
न्यायालय ने दोनों प्रश्नों का उत्तर श्रीवास्तव के पक्ष में देते हुए अपील स्वीकार की और 30 अप्रैल 2019 का उच्च न्यायालय का निर्णय रद्द कर दिया। साथ ही, 26 अप्रैल 2017 का आदेश पुनर्स्थापित कर दिया गया।
अनुशासनात्मक कार्यवाही का दायरा
कोर्ट ने के.के. धवन निर्णय का पुनरावलोकन किया, जिसमें 6 स्थितियाँ बताई गई थीं जिनमें अनुशासनात्मक कार्यवाही उचित हो सकती है — जैसे भ्रष्टाचार, बेईमानी, लापरवाही आदि। लेकिन कोर्ट ने कहा कि —
“सिर्फ तकनीकी त्रुटियाँ या गलत आदेश, यदि उपरोक्त श्रेणियों में नहीं आते, तो उनके आधार पर अनुशासनात्मक कार्यवाही नहीं की जा सकती।”
श्रीवास्तव के मामले में:
- चार्जशीट में कोई बाहरी प्रभाव, रिश्वत, या बेईमानी का प्रमाण नहीं था।
- आदेश विधिसम्मत प्रक्रिया के तहत, सद्भावना में पारित किया गया प्रतीत होता है।
कोर्ट ने टिप्पणी की:
“इस मामले में हम यह मानते हैं कि चार्जशीट में लगाए गए आरोप एक गलत आदेश से संबंधित हैं, जो किसी बाहरी प्रभाव या अनुचित लाभ से प्रेरित प्रतीत नहीं होता। यह आदेश सद्भावना में दिया गया लगता है।”
कोर्ट ने जुंजारराव भिकाजी नागरकर बनाम भारत संघ (1999) और कृष्ण प्रसाद वर्मा बनाम बिहार राज्य (2019) जैसे फैसलों का हवाला देते हुए कहा कि अर्ध-न्यायिक आदेशों में त्रुटियाँ अपने आप में कदाचार नहीं मानी जा सकतीं जब तक कि कोई प्रमाण न हो।
देरी का प्रभाव
दूसरे मुद्दे पर कोर्ट ने कहा कि हालांकि प्रत्येक मामले में देरी का प्रभाव अलग-अलग हो सकता है, लेकिन इस मामले में 14 वर्षों की बिना स्पष्टीकरण देरी कार्यवाही को रोकने के लिए पर्याप्त है। कोर्ट ने कहा:
- विभाग को 1997 से कथित कदाचार की जानकारी थी, फिर भी 2009-2011 तक कोई कार्यवाही नहीं हुई।
- राज्य ने देरी का कोई उचित कारण नहीं बताया और न ही कोई बाहरी प्रभाव का प्रमाण दिया।
कोर्ट ने कहा:
“जब विभाग को कथित कदाचार की जानकारी पहले से थी, फिर भी 14 वर्षों तक विभागीय कार्यवाही शुरू नहीं की गई, तो इसका उत्तर कर्मचारी के पक्ष में ही जाना चाहिए।”
हालांकि कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि सिर्फ देरी, भ्रष्टाचार जैसे गंभीर मामलों में पर्याप्त आधार नहीं हो सकती।
राज्य बनाम बानी सिंह (1990) और पी.वी. महादेवन बनाम टी.एन. हाउसिंग बोर्ड (2005) जैसे निर्णयों का हवाला देते हुए कोर्ट ने कहा कि लंबे समय तक कार्यवाही लंबित रहने से कर्मचारी को मानसिक पीड़ा और प्रतिष्ठा की हानि होती है।