सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया है कि कोई भी अदालत रिव्यू (पुनर्विचार) जूरिस्डिक्शन के तहत अपने ही आदेश की दोबारा सुनवाई नहीं कर सकती और न ही अपील की तरह विचार कर सकती है। न्यायमूर्ति अहसनुद्दीन अमानुल्लाह और न्यायमूर्ति एस.वी.एन. भट्टी की पीठ ने यह टिप्पणी मद्रास उच्च न्यायालय के एक रिव्यू आदेश को रद्द करते हुए की, जिसमें उच्च न्यायालय ने पूर्व में पारित अपने ही निर्णय को एक पुश्तैनी संपत्ति विवाद में वापस ले लिया था।
रिव्यू पावर की सीमाएं
न्यायालय ने कहा कि सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 114 और आदेश 47 के तहत रिव्यू का अधिकार सीमित है और इसे अपील का विकल्प नहीं बनाया जा सकता। पीठ ने स्पष्ट किया, “रिव्यू कोर्ट अपने ही आदेश पर अपील के रूप में नहीं बैठता। मामले की पुनः सुनवाई की अनुमति नहीं है।” यह सिद्धांत उस सामान्य नियम का अपवाद है जिसके तहत एक बार हस्ताक्षरित निर्णय में बदलाव नहीं किया जाना चाहिए, और इसे केवल गंभीर त्रुटि सुधारने या न्याय के चूक को रोकने के लिए ही प्रयोग किया जाता है।
विवाद की पृष्ठभूमि
मामला वर्ष 2000 में दायर एक बंटवारे के वाद से जुड़ा था, जिसमें पुत्र ने अपने पिता से पुश्तैनी संपत्ति में हिस्सेदारी मांगी थी। पुत्र की बहन मल्लीस्वरी (अपीलकर्ता) को इस वाद में पक्षकार नहीं बनाया गया। वर्ष 2003 में एकतरफा प्रारंभिक डिक्री पारित हुई। इसके बाद पिता ने कुछ संपत्तियां खरीदार के. सुगुणा को बेच दीं और बाकी संपत्तियां बेटी मल्लीस्वरी को दे दीं।

पिता की मृत्यु के बाद मल्लीस्वरी को उनके कानूनी उत्तराधिकारी के रूप में रिकॉर्ड में शामिल किया गया। उन्होंने हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के तहत अपने स्वतंत्र 1/3 हिस्से के अधिकार का दावा करते हुए प्रारंभिक डिक्री में संशोधन का आवेदन किया, जिसे ट्रायल कोर्ट ने खारिज कर दिया।
सिविल रिवीजन याचिका में, उच्च न्यायालय ने 23 सितंबर 2022 को मल्लीस्वरी के पक्ष में फैसला दिया। इस आदेश को खरीदार के. सुगुणा ने रिव्यू याचिका में चुनौती दी, जिसे उच्च न्यायालय ने 19 अक्टूबर 2024 को स्वीकार करते हुए अपना ही पिछला आदेश रद्द कर दिया और मामले को पुनः सुनवाई के लिए भेज दिया। यही रिव्यू आदेश सुप्रीम कोर्ट में चुनौती का विषय था।
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण
सुप्रीम कोर्ट ने अपीलीय और रिव्यू अधिकार के बीच के अंतर का विस्तार से विश्लेषण किया। कोर्ट ने पाया कि उच्च न्यायालय ने अपने रिव्यू आदेश में केवल “रिकॉर्ड पर स्पष्ट और प्रत्यक्ष त्रुटि” को सुधारने तक खुद को सीमित नहीं रखा, बल्कि पक्षकारों के पक्ष और विपक्ष के मामले का पुनर्मूल्यांकन किया, जो अपीलीय न्यायालय का क्षेत्राधिकार है।
निर्णय में दोहराया गया कि रिव्यू के लिए त्रुटि स्पष्ट और प्रत्यक्ष होनी चाहिए, न कि ऐसी जो “लंबी कानूनी दलीलों से साबित की जाए।” कोर्ट ने पूर्व निर्णय पार्शन देवी बनाम सुमित्रि देवी का हवाला देते हुए कहा, “रिव्यू याचिका का उद्देश्य सीमित है और इसे छिपी हुई अपील के रूप में अनुमति नहीं दी जा सकती।”
कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि उच्च न्यायालय का रिव्यू आदेश “वाद में प्रार्थनाओं के वास्तविक निपटान से कहीं आगे चला गया” और इस प्रकार रिव्यू अधिकार क्षेत्र से बाहर था।
फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने मल्लीस्वरी की अपील स्वीकार करते हुए विवादित रिव्यू आदेश को रद्द कर दिया। उच्च न्यायालय का 23 सितंबर 2022 का मूल आदेश, जिसमें उनके हिस्से के दावे को मान्यता दी गई थी, बहाल कर दिया गया। ट्रायल कोर्ट को निर्देश दिया गया कि सभी लंबित आवेदनों का निपटारा तीन महीने के भीतर करे।