सुप्रीम कोर्ट ने अपने विशेष अधिकारों का प्रयोग करते हुए हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट के एक फैसले को रद्द कर दिया है और एक छात्रा की स्नातकोत्तर डिग्री को बहाल करने का आदेश दिया है, जिसकी प्रवेश को इसलिए अमान्य कर दिया गया था क्योंकि विश्वविद्यालय ने आवेदन प्रक्रिया के बाद पात्रता संबंधी मानदंडों में बदलाव कर दिए थे।
मुख्य न्यायाधीश बी. आर. गवई और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत असाधारण अधिकारों का प्रयोग करते हुए छात्रा के प्रवेश को नियमित कर दिया और कहा कि उसने कोर्स पूरा कर लिया था, ऐसे में डिग्री से वंचित करना “अपूरणीय क्षति” होगी।
मामला क्या है?
अपीलकर्ता साक्षी चौहान ने शैक्षणिक सत्र 2020-21 के लिए डॉ. यशवंत सिंह परमार बागवानी एवं वानिकी विश्वविद्यालय में एम.एससी./एमबीए (एग्री बिजनेस प्रोग्राम) में प्रवेश के लिए मई 2020 में प्रकाशित प्रॉस्पेक्टस के आधार पर आवेदन किया था। उन्होंने एटरनल यूनिवर्सिटी से कृषि में ऑनर्स स्नातक की डिग्री प्राप्त की थी, जो विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) से मान्यता प्राप्त है।

कोविड-19 महामारी के चलते विश्वविद्यालय ने प्रवेश परीक्षा रद्द कर दी और मेरिट सूची स्नातक अंकों के आधार पर तैयार करने का निर्णय लिया। साक्षी की आवेदन प्रक्रिया को आरंभिक चरण में अस्वीकार नहीं किया गया था।
लेकिन दिसंबर 2020 में विश्वविद्यालय ने कई नोटिस और परिशिष्ट (addendums) जारी किए। 3 दिसंबर 2020 को जारी एक नोटिस में कहा गया कि गैर-राज्य कृषि विश्वविद्यालयों के छात्र एम.एससी. कार्यक्रम के लिए अयोग्य होंगे। इसके बाद 11 और 15 दिसंबर को परिशिष्टों में स्पष्ट किया गया कि जो छात्र ICAR (भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद) से मान्यता प्राप्त निजी कृषि विश्वविद्यालयों से स्नातक नहीं हैं, वे भी प्रवेश के लिए अयोग्य होंगे।
इन नए नियमों के आधार पर साक्षी की उम्मीदवारी रद्द कर दी गई।
न्यायिक कार्यवाही
साक्षी चौहान ने विश्वविद्यालय के इस निर्णय और पात्रता मानदंड में बदलाव को हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट में चुनौती दी। 27 जनवरी 2021 को एकल पीठ ने अंतरिम आदेश पारित कर विश्वविद्यालय को निर्देश दिया कि वह उन्हें काउंसलिंग में भाग लेने दे, यह स्पष्ट करते हुए कि इससे उन्हें कोई अधिकार प्राप्त नहीं होगा और यह याचिका के अंतिम निर्णय पर निर्भर करेगा।
इसके बाद उन्हें एम.एससी. इनवायर्नमेंटल मैनेजमेंट कोर्स में स्ववित्तपोषित सीट पर अस्थायी प्रवेश मिल गया। हालांकि, 6 मार्च 2021 को एकल पीठ ने याचिका खारिज कर दी और उन्हें अयोग्य घोषित किया।
इसके खिलाफ उन्होंने डिवीजन बेंच में अपील की, जिसने 15 मार्च 2021 को एकल पीठ के आदेश पर रोक लगाई और 19 अप्रैल 2021 को उन्हें अध्ययन जारी रखने की अनुमति दी। इन आदेशों के तहत उन्होंने दो वर्ष का पाठ्यक्रम पूरा किया और 4 मई 2023 को डिग्री भी प्राप्त कर ली।
लेकिन 19 जुलाई 2023 को डिवीजन बेंच ने अपील खारिज कर दी और विश्वविद्यालय ने 5 अगस्त 2023 को एक अधिसूचना जारी कर उनकी डिग्री रद्द कर दी। इसके खिलाफ उन्होंने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया।
पक्षकारों की दलीलें
अपीलकर्ता के वकील ने दलील दी कि विश्वविद्यालय द्वारा पात्रता मानदंड में बार-बार बदलाव से गंभीर भ्रम और अनिश्चितता उत्पन्न हुई। अगर शुरुआत से ही मानदंड स्पष्ट होते, तो उनकी आवेदन तुरंत खारिज हो जाती और वे अन्य संस्थानों में प्रवेश लेने का प्रयास कर सकती थीं।
उन्होंने कहा कि उन्होंने मूल प्रॉस्पेक्टस की सभी शर्तें पूरी की थीं, जिसमें केवल UGC से मान्यता प्राप्त विश्वविद्यालय से स्नातक होना आवश्यक था। ऐसे में प्रवेश देकर दो साल पढ़ाई पूरी करवाने के बाद डिग्री रद्द करना अनुचित है। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट से अनुच्छेद 142 के तहत विशेष शक्ति का प्रयोग करने की अपील की ताकि “अपूरणीय क्षति” से बचा जा सके।
वहीं, विश्वविद्यालय की ओर से पेश वकील ने हाईकोर्ट के फैसलों का समर्थन करते हुए कहा कि अपीलकर्ता शुरू से ही पात्र नहीं थीं। उन्होंने कहा कि उनका प्रवेश केवल अंतरिम आदेश के तहत हुआ था और उन्हें कोई वैधानिक अधिकार नहीं था। हालांकि, विश्वविद्यालय ने यह नहीं नकारा कि छात्रा ने पूरी शैक्षणिक आवश्यकताएं पूरी की थीं और अच्छे अंक प्राप्त किए थे।
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण और निर्णय
न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह द्वारा लिखित फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि दिसंबर 2020 में जारी परिशिष्टों से यह स्पष्ट है कि स्वयं विश्वविद्यालय के स्तर पर भी भ्रम की स्थिति थी।
न्यायालय ने कहा, “इन परिस्थितियों में, लाभ अपीलकर्ता को मिलना चाहिए, विशेष रूप से जब उन्होंने दो वर्षों की मेहनत से कोर्स पूरा किया और अच्छे अंक प्राप्त किए।”
पीठ ने यह भी कहा कि विश्वविद्यालय की ओर से उठाया गया एकमात्र आपत्ति यह थी कि स्नातक की डिग्री एक निजी विश्वविद्यालय से थी। यह तथ्य विवादित नहीं था कि अपीलकर्ता ने एक वैध स्नातक डिग्री प्राप्त की थी और स्नातकोत्तर कोर्स की सभी आवश्यकताएं पूरी की थीं।
न्यायालय ने कहा, “अब इस स्तर पर उनकी डिग्री रद्द करना उपयुक्त नहीं होगा और इससे एक छात्रा को, जिसने अपने करियर के दो मूल्यवान वर्ष निवेश किए, अन्याय होगा और यह अपूरणीय क्षति होगी।”
अनुच्छेद 142 के तहत अधिकार का प्रयोग करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा, “हमारे विचार में यह एक उपयुक्त मामला है जहाँ भारतीय संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत क्षेत्राधिकार का प्रयोग करते हुए एम.एससी. इनवायर्नमेंटल मैनेजमेंट कोर्स में प्रवेश को नियमित किया जाए और 04.05.2023 को दी गई स्नातकोत्तर डिग्री को वैध ठहराया जाए।”
सुप्रीम कोर्ट ने अपील स्वीकार करते हुए हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट के दोनों फैसले रद्द कर दिए। विश्वविद्यालय द्वारा डिग्री रद्द करने की अधिसूचना को “निरर्थक” घोषित करते हुए निर्देश दिया कि अपीलकर्ता को औपचारिक रूप से एम.एससी. की डिग्री प्रदान की जाए।