सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को स्पष्ट कहा कि सरकारी या उसके संस्थानों द्वारा लिए गए आर्थिक तथा राजकोषीय नीति संबंधी निर्णयों को सार्वजनिक हित याचिका के नाम पर हाई कोर्ट की रिट अधिकारिता के माध्यम से चुनौती नहीं दी जा सकती।
न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति संदीप मेहता की पीठ ने बॉम्बे हाई कोर्ट की नागपुर पीठ द्वारा दिए गए उन आदेशों को रद्द कर दिया, जिनमें अकोला नगर निगम द्वारा 16 साल बाद संपत्ति कर बढ़ाने के फैसले को निरस्त किया गया था। निगम ने वर्ष 2017 में पारित प्रस्तावों के जरिए 2017–18 से 2021–22 तक पाँच वर्ष की अवधि के लिए संपत्ति कर निर्धारण का नया तरीका तय किया था, जिसके तहत लगभग 40 प्रतिशत वृद्धि हुई।
पीठ ने कहा कि जनहित याचिका के माध्यम से न्यायिक हस्तक्षेप तभी संभव है, जब सरकार द्वारा संवैधानिक कर्तव्यों के निर्वहन में चूक के कारण जनता को वास्तविक क्षति पहुँची हो। अदालत ने माना कि हाई कोर्ट ने कर दर बढ़ाने के निर्णय में हस्तक्षेप कर न्यायिक समीक्षा की सीमाओं को पार कर दिया, जबकि यह नहीं पाया गया कि कर वृद्धि का निर्णय मनमाना, असंवैधानिक या दुर्भावनापूर्ण था।
अदालत ने कहा कि दायर पीआईएल में निगम के कर संशोधन करने के अधिकार या क्षमता को चुनौती नहीं दी गई थी, बल्कि केवल प्रक्रिया पर सवाल उठाए गए थे। ऐसे में हाई कोर्ट को “भ्रमणशील जांच” कर कर वृद्धि के औचित्य या समझदारी पर टिप्पणी नहीं करनी चाहिए थी, जब तक यह साबित न हो जाए कि अपनाई गई प्रक्रिया स्पष्ट रूप से मनमानी, असंगत या विधिक प्रावधानों के विपरीत थी।
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि लगभग 16 वर्षों तक संपत्ति कर स्थिर रखने से परिस्थितियाँ ऐसी बनीं कि निगम को दरों में वृद्धि करना आवश्यक हो गया। अदालत ने टिप्पणी की कि यदि कर संशोधन समय-समय पर होता रहता, तो शायद वर्ष 2017 में एकमुश्त भारी वृद्धि की स्थिति नहीं आती।
अंत में पीठ ने कहा कि नगर निगम के लिए संपत्ति कर उसकी कल्याणकारी और विकास गतिविधियों के लिए प्रमुख राजस्व स्रोत है और इस तरह के आर्थिक निर्णय न्यायिक समीक्षा की सीमाओं से बाहर हैं। इसके साथ ही हाई कोर्ट के दोनों आदेश रद्द कर दिए गए।

