डिग्री के ‘शीर्षक’ से ज्यादा महत्वपूर्ण है ‘पाठ्यक्रम’; सुप्रीम कोर्ट ने संविदा कर्मचारी की बहाली का आदेश दिया

सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के उस आदेश को रद्द कर दिया है, जिसमें एक संविदा कर्मचारी की सेवा समाप्ति को सही ठहराया गया था। कर्मचारी को इसलिए नौकरी से निकाल दिया गया था क्योंकि उसके पास विज्ञापन में मांगी गई “सांख्यिकी में स्नातकोत्तर डिग्री” (Postgraduate degree in Statistics) नहीं थी, जबकि उसने एम.कॉम (M.Com) में सांख्यिकी (Statistics) को मुख्य विषय के रूप में पढ़ा था।

जस्टिस संजय करोल और जस्टिस विपुल एम. पंचोली की पीठ ने कहा कि केवल डिग्री के नाम पर जोर देना और उसके पाठ्यक्रम (Curriculum) को नजरअंदाज करना “तथ्य के ऊपर स्वरूप को प्राथमिकता देना” (Elevating form over substance) है। कोर्ट ने माना कि जब राज्य का कोई भी सरकारी विश्वविद्यालय “सांख्यिकी” नाम से अलग स्नातकोत्तर डिग्री प्रदान नहीं करता है, तो ऐसी मांग करना अनुचित है।

मामले की पृष्ठभूमि

अपीलकर्ता लक्ष्मीकांत शर्मा ने लोक स्वास्थ्य एवं अभियांत्रिकी विभाग (P.H.E.D.), भोपाल के अंतर्गत जल सहायता संगठन (W.S.O.) में ‘मॉनिटरिंग एंड इवैल्यूएशन कंसल्टेंट’ के पद के लिए आवेदन किया था। यह भर्ती 7 नवंबर, 2012 के विज्ञापन के तहत की गई थी।

विवाद की जड़: विज्ञापन में न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता “किसी मान्यता प्राप्त सरकारी विश्वविद्यालय से कम से कम 60% अंकों के साथ सांख्यिकी में स्नातकोत्तर डिग्री” मांगी गई थी।

अपीलकर्ता के पास पन्ना के छत्रसाल सरकारी स्नातकोत्तर महाविद्यालय से एम.कॉम (M.Com) की डिग्री थी, जिसमें उन्होंने ‘बिजनेस स्टैटिस्टिक्स’ और ‘इंडियन इकोनॉमिक स्टैटिस्टिक्स’ मुख्य विषयों के रूप में पढ़े थे। दस्तावेजों के सत्यापन के बाद उन्हें 26 अप्रैल, 2013 को नियुक्त कर लिया गया।

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हालांकि, बाद में एक 8-सदस्यीय समिति ने रिपोर्ट दी कि अपीलकर्ता के पास विज्ञापन के अनुसार योग्यता नहीं है। इसके आधार पर 10 अक्टूबर, 2013 को उनकी सेवाएं समाप्त कर दी गईं। कई बार हाईकोर्ट द्वारा मामले को पुनर्विचार के लिए भेजे जाने के बावजूद, राज्य सरकार ने 2018 और 2020 में फिर से उनकी सेवा समाप्ति के आदेश जारी किए। हाईकोर्ट की एकल पीठ और खंडपीठ ने भी राज्य के निर्णय को सही माना था, जिसके खिलाफ यह अपील सुप्रीम कोर्ट में दायर की गई थी।

पक्षों की दलीलें

अपीलकर्ता का पक्ष:

  1. डिग्री का अस्तित्व: अपीलकर्ता ने तर्क दिया कि मध्य प्रदेश का कोई भी सरकारी विश्वविद्यालय “एम.कॉम (सांख्यिकी)” या केवल “सांख्यिकी” के नाम से पीजी डिग्री नहीं देता है। इसलिए, ऐसी डिग्री की मांग करना मनमाना है जो अस्तित्व में ही नहीं है।
  2. विशेषज्ञ की राय: विभाग के निदेशक (Director, W.S.O.) ने 23 नवंबर, 2019 को अपनी राय दी थी कि अपीलकर्ता के पाठ्यक्रम में सांख्यिकी के आवश्यक विषय शामिल थे और उनकी सेवाओं को बहाल किया जाना चाहिए।
  3. प्राकृतिक न्याय का उल्लंघन: जांच समिति ने अपीलकर्ता को अपना पक्ष रखने का मौका दिए बिना ही रिपोर्ट तैयार की थी।

राज्य (प्रतिवादी) का पक्ष:

  1. विज्ञापन का पालन: राज्य ने तर्क दिया कि विज्ञापन में स्पष्ट रूप से “सांख्यिकी में स्नातकोत्तर डिग्री” मांगी गई थी। एम.कॉम की डिग्री, जिसमें सांख्यिकी केवल एक विषय है, उसे सांख्यिकी में मास्टर डिग्री के बराबर नहीं माना जा सकता।
  2. न्यायिक समीक्षा की सीमा: राज्य ने कहा कि अदालतें निर्धारित योग्यता का विस्तार नहीं कर सकतीं और न ही किसी अन्य योग्यता को समकक्ष घोषित कर सकती हैं।
  3. समानता का अधिकार: राज्य ने दलील दी कि यदि गलती से कुछ अन्य अयोग्य लोगों को नौकरी में रखा गया है, तो अपीलकर्ता अनुच्छेद 14 (समानता) का हवाला देकर उसी अवैधता का लाभ नहीं मांग सकता।
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सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण और टिप्पणी

फैसले को लिखते हुए जस्टिस विपुल एम. पंचोली ने पाया कि अपीलकर्ता ने सांख्यिकी को मुख्य विषय के रूप में पढ़ा है और राज्य द्वारा मांगी गई विशिष्ट नाम वाली डिग्री वहां के विश्वविद्यालयों में उपलब्ध ही नहीं है।

योग्यता की व्याख्या पर: कोर्ट ने कहा कि इस मामले में डिग्री के नाम पर सख्ती से अड़े रहना अनुचित है। पीठ ने टिप्पणी की:

“हमारी राय है कि पाठ्यक्रम पर विचार किए बिना केवल डिग्री के शीर्षक पर जोर देना ‘तथ्य के ऊपर स्वरूप को प्राथमिकता देना’ (Elevating form over substance) है। कानून ऐसी व्याख्या के लिए बाध्य नहीं करता। योग्यता को संदर्भ और उद्देश्य के अनुसार समझा जाना चाहिए।”

विशेषज्ञ की राय की अनदेखी: सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर कड़ी आपत्ति जताई कि राज्य ने अपने ही विभाग के निदेशक की राय को नजरअंदाज कर दिया। निदेशक ने स्पष्ट किया था कि अपीलकर्ता के पास ‘क्वांटिटेटिव मेथड्स’ और ‘सांख्यिकी’ जैसे विषय थे और उनका कार्य संतोषजनक था।

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संविदा नियुक्ति और मनमानापन: राज्य की इस दलील को खारिज करते हुए कि यह केवल एक संविदा (Contractual) नौकरी थी, कोर्ट ने ग्रिडको लिमिटेड बनाम सदानंद डोलई (2011) के फैसले का हवाला दिया। कोर्ट ने कहा कि संविदा के मामलों में भी यदि राज्य का कोई निर्णय मनमाना, अनुचित या तर्कहीन है, तो अदालत उसमें हस्तक्षेप कर सकती है।

फैसला

सुप्रीम कोर्ट ने अपील स्वीकार करते हुए मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के फैसले को रद्द कर दिया।

मुख्य निर्देश:

  1. कोर्ट ने माना कि अपीलकर्ता के पास विज्ञापन के संदर्भ में आवश्यक शैक्षणिक योग्यता थी।
  2. अपीलकर्ता को ‘मॉनिटरिंग एंड इवैल्यूएशन कंसल्टेंट’ के पद पर चार सप्ताह के भीतर बहाल (Restore to service) करने का आदेश दिया गया।
  3. अपीलकर्ता को सभी परिणामी लाभ (Consequential benefits) भी मिलेंगे।

(नोट: कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यह फैसला इस मामले के विशेष तथ्यों और परिस्थितियों को देखते हुए दिया गया है और इसे अन्य मामलों में मिसाल (Precedent) के रूप में नहीं माना जाएगा।)

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