एक महत्वपूर्ण निर्णय में, सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत रिट क्षेत्राधिकार की विवेकाधीन प्रकृति को दोहराते हुए कहा कि केवल वैकल्पिक उपाय की उपलब्धता के आधार पर हाईकोर्ट को रिट याचिका सुनने से रोका नहीं जा सकता, खासकर जब मामला लंबे समय से जारी अन्याय से जुड़ा हो। यह निर्णय Neha Chandrakant Shroff & Anr. vs State of Maharashtra & Ors. में आया, जिसमें कोर्ट ने बॉम्बे हाईकोर्ट के उस फैसले को खारिज कर दिया, जिसमें केवल वैकल्पिक उपाय की उपलब्धता के आधार पर याचिका स्वीकार करने से इनकार कर दिया गया था।
मामला क्या था
अपीलकर्ताओं — नेहा चंद्रकांत श्रॉफ और एक अन्य — ने बॉम्बे हाईकोर्ट में एक याचिका दायर की थी, जिसमें उन्होंने मुंबई के ओपेरा हाउस स्थित अमर भवन की दो फ्लैट्स (फ्लैट नं. 11 और 12) का कब्जा पुनः दिलाने की मांग की थी। उनका दावा था कि 1940 में उनके पूर्वजों ने प्रशासनिक आवश्यकताओं के चलते अस्थायी रूप से इन फ्लैट्स का कब्जा महाराष्ट्र पुलिस विभाग को दिया था, लेकिन इसके लिए न तो कोई लिखित अधिग्रहण आदेश (requisition order) पारित हुआ और न ही कोई लीज डीड (lease deed) बनाई गई।
हालांकि ₹611 प्रति माह के नाममात्र किराए का भुगतान दिसंबर 2007 तक किया गया था, लेकिन उसके बाद कोई भुगतान नहीं हुआ। कब्जा लौटाने के लिए कई बार अनुरोध किए गए, लेकिन कोई कार्रवाई न होते देख अपीलकर्ताओं ने अनुच्छेद 226 के तहत हाईकोर्ट में रिट याचिका दायर की।

बॉम्बे हाईकोर्ट ने 30 अप्रैल 2024 को यह कहते हुए याचिका खारिज कर दी कि विवाद तथ्यात्मक प्रश्नों पर आधारित है और याचिकाकर्ताओं को किराया नियंत्रण कानून या अन्य वैकल्पिक उपाय अपनाने की सलाह दी।
सुप्रीम कोर्ट का निर्णय
हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ अपील स्वीकार करते हुए सुप्रीम कोर्ट की पीठ — जिसमें जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और जस्टिस आर. महादेवन शामिल थे — ने वैकल्पिक उपाय के नियम पर स्पष्ट रूप से कहा:
“वैकल्पिक उपाय की उपलब्धता द्वारा रिट क्षेत्राधिकार को बाहर करने का नियम विवेकाधीन है, अनिवार्य नहीं।”
कोर्ट ने आगे कहा:
“ऐसी कई परिस्थितियाँ हो सकती हैं जहाँ हाईकोर्ट वैकल्पिक उपाय की उपलब्धता के बावजूद रिट क्षेत्राधिकार का उपयोग करने के लिए न्यायोचित हो सकता है। संविधान द्वारा हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट को जो शक्तियाँ दी गई हैं, वे किसी वैकल्पिक उपाय की उपलब्धता से बाधित नहीं हो सकतीं।”
कोर्ट ने यह भी कहा कि अपीलकर्ताओं को अब दीवानी वाद दायर करने के लिए कहना अन्यायपूर्ण होगा:
“अपीलकर्ताओं को अब वाद दायर कर कब्जा प्राप्त करने के लिए कहना, जैसे घाव पर नमक छिड़कने के समान होगा… ये वो कठिन वास्तविकताएँ हैं जिन्हें वर्तमान समय में हाईकोर्ट्स को ध्यान में रखना चाहिए।”
निष्कर्ष और निर्देश
सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि रिकॉर्ड में ऐसा कोई भी साक्ष्य नहीं था जिससे यह सिद्ध होता कि फ्लैट्स को किसी विधिक प्रावधान के तहत अधिग्रहित किया गया था। कोर्ट ने यह भी देखा कि पुलिसकर्मियों के दो परिवार बिना किसी वैध लीज या आदेश के इन फ्लैट्स पर कब्जा किए हुए हैं और पिछले 18 वर्षों से कोई किराया भी नहीं दिया गया है।
इस आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने:
- बॉम्बे हाईकोर्ट का निर्णय निरस्त किया।
- राज्य सरकार को चार महीनों के भीतर दोनों फ्लैट्स का खाली और शांतिपूर्ण कब्जा अपीलकर्ताओं को सौंपने का निर्देश दिया।
- वर्ष 2008 से लेकर कब्जा सौंपे जाने की तिथि तक का बकाया किराया चुकाने का आदेश दिया।
- अदालत में उपस्थित पुलिस उपायुक्त को निर्देश दिया कि वे एक सप्ताह के भीतर अनुपालन का हलफनामा दायर करें।