सुप्रीम कोर्ट ने यूपी सरकार की सेवा विवाद में धोखाधड़ी का हवाला देते हुए दो पूर्व-पक्षीय मध्यस्थता निर्णयों को रद्द किया

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने 9 जनवरी, 2025 को एक ऐतिहासिक फैसले में, ₹46 लाख से अधिक के दो पूर्व-पक्षीय मध्यस्थता निर्णयों को क्षेत्राधिकार की कमी और धोखाधड़ीपूर्ण कार्यवाहियों के आधार पर रद्द कर दिया। यह मामला, सिविल अपील संख्या 10212/2014 (उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य बनाम आर.के. पांडेय एवं अन्य), यूपी सरकार के अधीन सेवा शर्तों को लेकर कानपुर के एक सेवानिवृत्त लैब सहायक आर.के. पांडेय के दावों से संबंधित था।

यह निर्णय मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना, न्यायमूर्ति संजय कुमार और न्यायमूर्ति आर. महादेवन की पीठ ने दिया, जिसमें मध्यस्थता की पवित्रता बनाए रखने और इसके दुरुपयोग को रोकने के प्रति न्यायालय की प्रतिबद्धता को रेखांकित किया गया।

मामले की पृष्ठभूमि

Play button

आर.के. पांडेय को 1944 में दीनानाथ परबती बंगला इंफेक्शियस डिजीज (डीएनपीबीआईडी) अस्पताल में नियुक्त किया गया था, जिसे 1956 में उत्तर प्रदेश राज्य सरकार को स्थानांतरित कर दिया गया। 1997 में सेवानिवृत्ति के बाद, पांडेय ने अपनी सेवानिवृत्ति आयु को लेकर विवाद उठाया, जिसमें उन्होंने दावा किया कि उनकी सेवानिवृत्ति आयु 58 के बजाय 60 वर्ष होनी चाहिए। उनकी प्रारंभिक याचिका इलाहाबाद उच्च न्यायालय में खारिज कर दी गई थी, लेकिन 2008 में उन्होंने एक कथित 1957 के समझौते का हवाला देकर मध्यस्थता कार्यवाही शुरू की।

READ ALSO  Criminal Cases Predominantly Civil in Nature Should Be Quashed If Settlement Arrives: Supreme Court

पांडेय ने एकतरफा तरीके से मध्यस्थों की नियुक्ति की, जिसके परिणामस्वरूप दो पूर्व-पक्षीय निर्णय दिए गए: ₹26.42 लाख के लिए 18% ब्याज के साथ और ₹20 लाख के लिए 9% ब्याज के साथ। इन निर्णयों को बाद में उत्तर प्रदेश राज्य द्वारा चुनौती दी गई।

कानूनी मुद्दे

मामले में निम्नलिखित महत्वपूर्ण प्रश्न उठाए गए:

1. मध्यस्थता समझौते का अस्तित्व: 1957 के कथित मध्यस्थता समझौते का कोई उल्लेख आधिकारिक रिकॉर्ड में नहीं था और इसे दशकों बाद संदिग्ध तरीके से प्रस्तुत किया गया था।

READ ALSO  मद्रास हाई कोर्ट ने अर्दली व्यवस्था को खत्म करने का निर्देश दिया

2. मध्यस्थों की एकतरफा नियुक्ति: सुप्रीम कोर्ट ने देखा कि पांडेय द्वारा एकतरफा मध्यस्थों की नियुक्ति निष्पक्षता और निष्पक्षता के सिद्धांतों का उल्लंघन करती है, जो मध्यस्थता के लिए मौलिक हैं।

3. समय सीमा से बाहर: न्यायालय ने रेखांकित किया कि पांडेय के दावे लिमिटेशन एक्ट, 1963 की धारा 3 और मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 43 के तहत समय सीमा से बाहर थे।

सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियां

पीठ ने धोखाधड़ीपूर्ण कार्यवाहियों की कड़ी निंदा की। मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना ने कहा:  

“धोखाधड़ी और न्याय एक साथ नहीं रह सकते। मध्यस्थता मूल रूप से पक्षकारों की स्वायत्तता पर आधारित होती है, और एक वैध मध्यस्थता समझौते का अस्तित्व प्रवर्तनीय निर्णयों के लिए आवश्यक है।”

न्यायालय ने जोर दिया कि मध्यस्थता के निर्णय प्राकृतिक न्याय और कानूनी प्रक्रिया के सिद्धांतों का पालन करने चाहिए। यह भी कहा गया कि पांडेय की कार्रवाई, जिसमें मध्यस्थों की स्व-नियुक्ति और एक समझौते की गढ़ना शामिल थी, राज्य को धोखा देने का प्रयास था।

READ ALSO  सुप्रीम कोर्ट ने जम्मू-कश्मीर के उपराज्यपाल के विधायकों को मनोनीत करने के अधिकार के खिलाफ याचिका खारिज की

निर्णय

सुप्रीम कोर्ट ने दोनों मध्यस्थता निर्णयों को रद्द कर दिया, उन्हें शून्य और अमान्य घोषित किया। न्यायालय ने कहा कि कार्यवाहियां धोखा थीं और विषय क्षेत्राधिकार से रहित थीं। संबंधित निष्पादन कार्यवाहियों को भी खारिज कर दिया गया और उत्तर प्रदेश राज्य को लागत प्रदान की गई।

Law Trend
Law Trendhttps://lawtrend.in/
Legal News Website Providing Latest Judgments of Supreme Court and High Court

Related Articles

Latest Articles