सुप्रीम कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट के फैसलों के लिए नया फॉर्मेट तय किया; गवाहों और सबूतों का चार्ट बनाना अनिवार्य

सुप्रीम कोर्ट ने आपराधिक मुकदमों में सबूतों को समझने की प्रक्रिया को सुव्यवस्थित करने के उद्देश्य से एक बड़ा कदम उठाया है। शीर्ष अदालत ने देश भर की सभी निचली अदालतों (Trial Courts) के लिए फैसले लिखने का एक “मानक फॉर्मेट” (Standardized Format) तय किया है। कोर्ट ने निर्देश दिया है कि अब हर आपराधिक फैसले में गवाहों, दस्तावेजी सबूतों और मटीरियल ऑब्जेक्ट्स (Material Objects) के लिए अलग से ‘टेबुलर चार्ट’ (Tabulated Charts) शामिल करना अनिवार्य होगा।

न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति संदीप मेहता की पीठ ने यह महत्वपूर्ण निर्देश 2013 के एक रेप केस के आरोपी को बरी करते हुए जारी किए। आरोपी ने करीब 13 साल जेल में बिताए थे। कोर्ट ने इस मामले की जांच को “लापरवाही से भरा” (Investigative Apathy) और “बुरी तरह से विफल” (Hopelessly Botched) करार दिया।

ट्रायल कोर्ट के लिए नए अनिवार्य दिशानिर्देश

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सबूतों को व्यवस्थित ढंग से पेश करने से न केवल पक्षकारों को बल्कि अपीलीय अदालतों को भी मामले को समझने में आसानी होती है। कोर्ट ने निर्देश दिया है कि सभी ट्रायल कोर्ट्स को अपने फैसले के अंत में (परिशिष्ट या अंतिम भाग के रूप में) निम्नलिखित चार्ट शामिल करने होंगे:

1. गवाहों का मानक चार्ट (Standardized Chart of Witnesses): हर फैसले में एक गवाह चार्ट होना चाहिए जिसमें कम से कम निम्नलिखित कॉलम हों:

  • क्रमांक (Serial Number)
  • गवाह का नाम
  • गवाह का संक्षिप्त विवरण/भूमिका (जैसे: शिकायतकर्ता, चश्मदीद गवाह, डॉक्टर, जांच अधिकारी, पंच गवाह)।
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2. प्रदर्शित दस्तावेजों का मानक चार्ट (Standardized Chart of Exhibited Documents): ट्रायल के दौरान प्रदर्शित (Exhibit) किए गए सभी दस्तावेजों के लिए एक अलग चार्ट तैयार किया जाना चाहिए, जिसमें शामिल हो:

  • एक्ज़िबिट नंबर (Exhibit Number)
  • दस्तावेज का विवरण (जैसे: एफआईआर, पंचनामा, एफएसएल रिपोर्ट)।
  • वह गवाह जिसने दस्तावेज को साबित/सत्यापित किया।

पीठ ने जोर देकर कहा कि दस्तावेज को साबित करने वाले गवाह का उल्लेख करना ‘एविडेंस एक्ट’ के अनुपालन और प्रमाणिकता की जांच के लिए महत्वपूर्ण है।

3. मटीरियल ऑब्जेक्ट्स (मुद्दामाल) का मानक चार्ट: जब भी मटीरियल ऑब्जेक्ट्स (जैसे हथियार, कपड़े आदि) पेश किए जाते हैं, तो एक तीसरा चार्ट शामिल किया जाना चाहिए:

  • मटीरियल ऑब्जेक्ट (M.O.) नंबर
  • वस्तु का विवरण
  • वह गवाह जिसने वस्तु की प्रासंगिकता साबित की।

कोर्ट ने स्पष्ट किया कि ये निर्देश बचाव पक्ष (Defence) द्वारा पेश किए गए गवाहों और सबूतों पर भी लागू होंगे। साथ ही, सुप्रीम कोर्ट रजिस्ट्री को निर्देश दिया गया है कि वह इस फैसले की कॉपी सभी हाईकोर्ट्स के रजिस्ट्रार जनरल को भेजे ताकि इसका अनुपालन सुनिश्चित किया जा सके।

13 साल बाद बरी: जांच में “घोर लापरवाही”

इन प्रक्रियात्मक मानदंडों को निर्धारित करते हुए, कोर्ट ने अपीलकर्ता मनोजभाई जेठाभाई परमार की दोषसिद्धि को रद्द कर दिया, जिसे 4 साल की बच्ची के साथ रेप के आरोप में आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी। कोर्ट ने इसे एक “गंभीर और परेशान करने वाला” मामला बताया, जहां प्रक्रियात्मक खामियों के कारण न्याय का हनन हुआ।

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मामले की पृष्ठभूमि: अभियोजन पक्ष के अनुसार, 13 जून 2013 को शिकायतकर्ता (PW-1) ने चार लड़कों को एक नग्न और खून से लथपथ 4 साल की बच्ची को ले जाते हुए देखा। उन लड़कों ने कथित तौर पर शिकायतकर्ता को बताया कि उन्होंने आरोपी को बच्ची को अपने घर से बाहर धक्का देते हुए देखा था। हालांकि, उसी रात दर्ज की गई एफआईआर “अज्ञात व्यक्तियों” के खिलाफ थी और उसमें न तो आरोपी का नाम था और न ही उन चार लड़कों का, जबकि शिकायतकर्ता का दावा था कि उसे ये विवरण पता थे।

सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण और निष्कर्ष

1. एफआईआर में महत्वपूर्ण तथ्यों का अभाव: सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि अभियोजन की कहानी झूठ पर आधारित थी। कोर्ट ने अमर नाथ झा बनाम नंद किशोर सिंह मामले का हवाला देते हुए कहा कि जब शिकायतकर्ता को घटना के तुरंत बाद आरोपी के बारे में पता चल गया था, तो एफआईआर में उसका नाम न होना पूरे मामले को संदेह के घेरे में लाता है।

2. गवाहों का “अस्वाभाविक” आचरण: कोर्ट ने उन चार लड़कों (कथित गवाहों) के व्यवहार पर हैरानी जताई। उन्होंने दावा किया कि उन्होंने एक नग्न, खून से लथपथ बच्ची को घर से बाहर फेंके जाते देखा, लेकिन उन्होंने उसे कपड़े नहीं पहनाए और न ही तुरंत मदद मांगी, बल्कि उसे पैदल दूसरी जगह ले गए। कोर्ट ने टिप्पणी की:

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“इन गवाहों द्वारा दिखाई गई घोर उदासीनता इस संदेह को पुख्ता करती है कि वे स्वयं अपराधी हो सकते हैं और खुद को बचाने के लिए उन्होंने आरोपी पर दोष मढ़ दिया।”

3. संदिग्ध बरामदगी और फोरेंसिक जांच का अभाव: पुलिस ने आरोपी के घर से खून से सने कपड़े बरामद करने का दावा किया था, लेकिन कोर्ट ने इसमें गंभीर विरोधाभास पाए:

  • जांच अधिकारी यह साबित नहीं कर सके कि जिस घर से बरामदगी हुई, वह आरोपी का ही था।
  • एक पंच गवाह ने स्वीकार किया कि पुलिस बिना स्वतंत्र गवाहों के घर में घुसी थी और उसकी मौजूदगी में कोई जब्ती नहीं हुई।
  • कोर्ट ने डीएनए प्रोफाइलिंग (DNA Profiling) जैसी वैज्ञानिक जांच न कराने पर पुलिस की कड़ी आलोचना की और इसे “जांच में घोर लापरवाही” (Investigative Apathy) करार दिया।

अंततः, सुप्रीम कोर्ट ने माना कि ट्रायल कोर्ट और हाईकोर्ट ने इन खामियों को नजरअंदाज किया। कोर्ट ने आरोपी को सभी आरोपों से बरी कर दिया और उसकी तत्काल रिहाई के आदेश दिए।

केस विवरण

  • वाद शीर्षक: मनोजभाई जेठाभाई परमार (रोहित) बनाम गुजरात राज्य
  • केस संख्या: क्रिमिनल अपील नंबर 2973/2023
  • कोरम: न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति संदीप मेहता

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