भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण फैसले में यह स्पष्ट किया है कि अदालत में किसी भी वकील द्वारा दी गई प्रतिबद्धता (अंडरटेकिंग) मुवक्किल की सहमति और निर्देशों के बिना नहीं हो सकती। यह निर्णय स्मृति लावण्या सी एवं अन्य बनाम विट्टल गुरुदास पाई एवं अन्य (CA No. 13999/2024, SLP(C) No. 13875/2021) के मामले में आया, जिसमें याचिकाकर्ताओं को अदालत में उनके वकील द्वारा दी गई प्रतिबद्धता का उल्लंघन करने के लिए अवमानना (कंटेम्प्ट) का दोषी ठहराया गया।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला 30 अप्रैल, 2004 को किए गए संयुक्त विकास समझौते (JDA) से संबंधित था, जिसके तहत एक टर्नकी आधार पर आवासीय अपार्टमेंट का निर्माण किया जाना था। यह प्रोजेक्ट 31 अक्टूबर, 2006 तक पूरा होना था, लेकिन समय पर पूरा नहीं हो सका। इसके परिणामस्वरूप, वादीगण (जो सुप्रीम कोर्ट में प्रतिवादी थे) ने 23 मार्च, 2007 को एक कानूनी नोटिस जारी कर समझौते को रद्द कर दिया और मूल वाद संख्या 4191/2007 दायर किया, जिसमें यह घोषणा करने की मांग की गई कि यह समझौता समाप्त हो गया है।
ट्रायल के दौरान, प्रतिवादीगण (आरोपी पक्ष) ने 11 जुलाई, 2007 और 13 अगस्त, 2007 को अदालत के समक्ष अपने वकील के माध्यम से यह अंडरटेकिंग दी कि वे विवादित संपत्ति को किसी को हस्तांतरित (बेच) नहीं करेंगे। लेकिन वादियों का आरोप था कि प्रतिवादियों ने इस वचन का उल्लंघन करते हुए संपत्ति के कई विक्रयपत्र निष्पादित किए। निचली अदालत ने 2 जनवरी, 2017 को वादीगण का मुकदमा खारिज कर दिया, जिसके बाद उन्होंने CPC, 1908 की आदेश 39 नियम 2A के तहत अदालत की अवमानना की कार्यवाही शुरू करने के लिए आवेदन दिया।

कानूनी मुद्दे
इस मामले में मुख्य कानूनी प्रश्न थे:
- क्या प्रतिवादियों ने जानबूझकर अदालत में दिए गए अंडरटेकिंग का उल्लंघन किया?
- क्या किसी वकील द्वारा अदालत में दी गई प्रतिबद्धता उसके मुवक्किल को बाध्यकारी बनाती है, भले ही मुवक्किल ने उसे स्पष्ट रूप से अधिकृत न किया हो?
- क्या किसी वकील को बिना मुवक्किल के स्पष्ट निर्देश के अदालत में कोई अंडरटेकिंग देने का स्वतंत्र अधिकार होता है?
- क्या बाद में मुकदमे की समाप्ति से प्रतिवादियों को अवमानना कार्यवाही से मुक्त किया जा सकता है?
सुप्रीम कोर्ट का निर्णय
न्यायमूर्ति पंकज मित्तल और न्यायमूर्ति संजय करोल की पीठ ने उच्च न्यायालय के आदेश को बरकरार रखा, जिसमें ट्रायल कोर्ट के फैसले को पलटते हुए अपीलकर्ताओं को अदालत की अवमानना का दोषी ठहराया गया।
मुख्य टिप्पणियां:
- वकील को मुवक्किल की सहमति के बिना कोई भी निर्णय अदालत में नहीं देना चाहिए।
अदालत ने स्पष्ट किया:
“कोई भी अधिवक्ता अपने मुवक्किल की स्पष्ट सहमति के बिना ऐसा कोई कथन या प्रतिबद्धता नहीं दे सकता, जो उसके कानूनी अधिकारों को प्रभावित कर सकता हो।” - अदालत को दिए गए वचन की अवज्ञा सजा योग्य होती है, भले ही बाद में आदेश रद्द कर दिया जाए।
अदालत ने समी खान बनाम बिंदू खान (1998) 7 SCC 59 के फैसले का हवाला देते हुए कहा:
“भले ही निषेधाज्ञा आदेश बाद में निरस्त कर दिया जाए, लेकिन उसका उल्लंघन अपने आप समाप्त नहीं हो जाता।” - अदालत में दी गई अंडरटेकिंग के कानूनी परिणाम होते हैं।
अपीलकर्ताओं की इस दलील को खारिज करते हुए कि वे अपने वकील द्वारा दी गई प्रतिबद्धता से अनजान थे, अदालत ने कहा:
“कोई भी अधिवक्ता मुवक्किल के स्पष्ट निर्देशों के खिलाफ समझौता करने का अधिकार नहीं रखता। यदि उसे मुवक्किल के निर्देश अनुचित लगते हैं, तो उसे केस से हट जाना चाहिए।” - अवमानना का उद्देश्य न्यायपालिका की प्रतिष्ठा बनाए रखना है।
अदालत ने सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन बनाम भारत संघ (1998) 4 SCC 409 के फैसले का हवाला देते हुए कहा:
“अवमानना न्यायालय की गरिमा और अधिकार को बनाए रखने के लिए होती है। यह एक असामान्य प्रकार का अधिकार क्षेत्र है, जहां अदालत ‘जूरी, न्यायाधीश और दंडाधिकारी’ की भूमिका निभाती है।”
अंतिम आदेश
सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट द्वारा सुनाई गई सजा को बरकरार रखा, लेकिन उसमें कुछ संशोधन किए। पहले अपीलकर्ताओं को तीन महीने की सिविल जेल और एक साल के लिए उनकी संपत्ति की कुर्की की सजा दी गई थी। लेकिन अदालत ने अपीलकर्ता नंबर 1 की उम्र (68 वर्ष) को ध्यान में रखते हुए कारावास की सजा समाप्त कर दी, जबकि ₹10 लाख का मुआवजा बढ़ाकर ₹13 लाख कर दिया, जो 6% ब्याज के साथ 2 अगस्त, 2013 से देय होगा।