सुप्रीम कोर्ट की न्यायमूर्ति बीवी नागरत्ना ने हाल ही में जनहित याचिकाओं (PILs) के दुरुपयोग को लेकर चिंता व्यक्त की है। उन्होंने कहा कि जनहित याचिकाएं अपने मूल उद्देश्य से भटककर व्यक्तिगत लाभ के उपकरण बनती जा रही हैं। उन्होंने यह टिप्पणी प्रसिद्ध विधि विद्वान उपेन्द्र बक्सी के विस्तृत कार्यों पर आधारित चार-खंडीय पुस्तक श्रृंखला “लॉ, जस्टिस, सोसायटी” के विमोचन कार्यक्रम के दौरान की।
न्यायमूर्ति नागरत्ना ने इस बात पर प्रकाश डाला कि जनहित याचिकाएं, जो कभी वंचितों के लिए न्याय का माध्यम थीं, अब “पैसा इंटरेस्ट लिटिगेशन” या “पब्लिसिटी इंटरेस्ट लिटिगेशन” बनती जा रही हैं। उन्होंने कहा कि यह प्रवृत्ति न्यायिक प्रक्रिया में संदेह उत्पन्न कर रही है और वास्तविक जनहित से भटक रही है। हालांकि, उन्होंने यह भी आश्वासन दिया कि वास्तविक जनहित से जुड़ी याचिकाओं को न्यायालय में पूरा महत्व दिया जाता है।
यह कार्यक्रम उपेन्द्र बक्सी के छह दशकों के विधि क्षेत्र में योगदान का उत्सव भी था, विशेष रूप से मानवाधिकार और संवैधानिक मुद्दों पर उनके कार्यों के संदर्भ में। यह संकलन अमीता धांडा, अरुण तिरुवेंगडम और कल्पना कन्नबिरन द्वारा संपादित किया गया है और ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस द्वारा प्रकाशित किया गया है। इसमें बक्सी के लेख, भाषण और आलेख शामिल हैं, जो विभिन्न कानूनी और सामाजिक विषयों को समाहित करते हैं।

न्यायमूर्ति नागरत्ना ने बक्सी के साहसिक विधिक दृष्टिकोण की सराहना करते हुए विशेष रूप से भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ितों के लिए उनके समर्थन को याद किया। उन्होंने कहा कि बक्सी ने कानून और सत्ता संरचनाओं के बीच संबंधों की गहन आलोचना की और यह दर्शाया कि पारंपरिक कानूनी समझ को वर्तमान गतिशील समाज में कैसे चुनौती दी जानी चाहिए।
बक्सी, जो वर्तमान में वारविक विश्वविद्यालय और नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, दिल्ली में प्रोफेसर एमेरिटस हैं, ने न्यायिक स्वतंत्रता की आवश्यकता पर बल दिया। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के विवादित नोटबंदी फैसले में न्यायमूर्ति नागरत्न के असहमति मत (डिसेंटिंग ओपिनियन) को न्यायिक साहस का उदाहरण बताया। उन्होंने न्यायाधीशों से आग्रह किया कि वे अपने निर्णयों के दूरगामी प्रभावों पर विचार करें और “भविष्य से संवाद करें”।
इस आयोजन ने बक्सी की प्रभावशाली कानूनी सोच और शासन व्यवस्था पर उनके योगदान को रेखांकित किया। उनके लेखन हमेशा यह दर्शाते रहे हैं कि न्यायिक संस्थानों को समय के साथ प्रासंगिक बनाए रखने के लिए कानूनी ढांचे को लगातार विकसित करने की आवश्यकता है। उनके उल्लेखनीय योगदान के लिए भारत सरकार ने उन्हें वर्ष 2011 में पद्मश्री से सम्मानित किया था।