सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति बी आर गवई ने अंबेडकर स्मृति व्याख्यान में संविधान की सराहना की

सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठतम न्यायाधीशों में से एक, न्यायमूर्ति बी आर गवई ने डॉ. भीमराव अंबेडकर की 135वीं जयंती के अवसर पर डॉ. अंबेडकर अंतरराष्ट्रीय केंद्र में आयोजित प्रथम ‘डॉ. अंबेडकर स्मृति व्याख्यान’ में भारतीय संविधान की विशेषताओं की सराहना की।

अपने संबोधन में न्यायमूर्ति गवई ने डॉ. अंबेडकर को “देश के महानतम सपूतों में से एक” और एक बहुआयामी दूरदर्शी बताया, जिन्होंने अर्थशास्त्री, समाज सुधारक और शिक्षाविद् के रूप में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने कहा कि डॉ. अंबेडकर द्वारा निर्मित संविधान न केवल 75 वर्षों की कसौटी पर खरा उतरा है, बल्कि इसने भारत को एक मजबूत, स्थिर और एकजुट राष्ट्र के रूप में स्थापित करने में अहम भूमिका निभाई है।

न्यायमूर्ति गवई ने इस बात पर प्रकाश डाला कि देश ने जाति, धर्म और पंथ की बाधाओं को पार करते हुए महत्वपूर्ण प्रगति की है, जिसके परिणामस्वरूप अनुसूचित जाति समुदाय से दो राष्ट्रपति, एक भारत के प्रधान न्यायाधीश, एक लोकसभा अध्यक्ष, एक महिला प्रधानमंत्री और एक पिछड़े वर्ग से प्रधानमंत्री जैसे नेता उभरे हैं। उन्होंने कहा कि यह सभी उपलब्धियाँ संविधान द्वारा प्रदत्त समतामूलक ढांचे के कारण संभव हुईं।

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मई 2025 में भारत के प्रधान न्यायाधीश बनने वाले न्यायमूर्ति गवई, यह पद संभालने वाले दूसरे दलित न्यायाधीश होंगे, जो इससे पहले न्यायमूर्ति के जी बालाकृष्णन द्वारा संभाला गया था। उन्होंने कहा कि उनका करियर डॉ. अंबेडकर और भारतीय संविधान की देन है। उन्होंने संविधान सभा में अंबेडकर के प्रारंभिक योगदान को याद किया, जो अनुसूचित जातियों और वंचित वर्गों के अधिकारों की रक्षा के लिए था, लेकिन बाद में उन्होंने इसे एक व्यापक राष्ट्रीय एकता और मजबूती के दृष्टिकोण में रूपांतरित किया।

न्यायमूर्ति गवई ने यह भी कहा कि संविधान एक जीवंत और अनुकूल दस्तावेज है, जिसे समय-समय पर भारत की बदलती जरूरतों के अनुसार संशोधित किया गया है, जबकि पड़ोसी देशों में अस्थिरता देखने को मिली है। उन्होंने डॉ. अंबेडकर की दूरदर्शिता को रेखांकित किया, जिसने यह सुनिश्चित किया कि संविधान केवल एक दस्तावेज न रहकर एक प्रगतिशील मार्गदर्शक बने।

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डॉ. भीमराव अंबेडकर, जिनका जन्म 1891 में एक दलित परिवार में हुआ था, एक अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त विद्वान थे और भारत के पहले कानून मंत्री बने। 1956 में उनके निधन के बाद भी वे आज भी वंचित वर्गों के अधिकारों के लिए प्रेरणा स्रोत बने हुए हैं और भारत के कानूनी एवं सामाजिक ढांचे को आकार देने में उनकी भूमिका अमिट है।

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