सुप्रीम कोर्ट ने ताक-झांक (Voyeurism), गलत तरीके से रोकने (Wrongful Restraint) और आपराधिक धमकी (Criminal Intimidation) के आरोपों से जुड़े एक मामले में आरोपी को बरी (discharge) कर दिया है। कोर्ट ने महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए कहा कि जिन मामलों में “प्रबल संदेह” (strong suspicion) नहीं होता, उनमें चार्जशीट दाखिल करने की प्रवृत्ति न्यायिक प्रणाली को बाधित करती है और गंभीर मामलों से संसाधनों का ध्यान भटकाती है।
जस्टिस नोंगमीकापम कोटेश्वर सिंह और जस्टिस मनमोहन की पीठ ने तुहिन कुमार बिस्वास @ बुम्बा द्वारा दायर अपील को स्वीकार करते हुए कलकत्ता हाईकोर्ट के उस फैसले को रद्द कर दिया, जिसमें आरोपी की डिस्चार्ज अर्जी को खारिज कर दिया गया था।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला 19 मार्च 2020 को बिधाननगर उत्तर पुलिस स्टेशन में दर्ज एक एफआईआर (FIR) से शुरू हुआ था। शिकायतकर्ता, सुश्री ममता अग्रवाल, ने दावा किया था कि वह साल्ट लेक, कोलकाता स्थित संपत्ति के सह-मालिक श्री अमलेन्दु बिस्वास की किरायेदार हैं। उन्होंने आरोप लगाया कि 18 मार्च 2020 को अपीलकर्ता ने उन्हें संपत्ति में प्रवेश करने से रोका। उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि अपीलकर्ता ने उनकी सहमति के बिना उनकी तस्वीरें खींचीं और वीडियो बनाए, जिससे उनकी निजता का हनन हुआ और उनकी लज्जा भंग हुई।
जांच पूरी होने पर 16 अगस्त 2020 को आईपीसी (IPC) की धारा 341 (गलत तरीके से रोकना), 354C (ताक-झांक) और 506 (आपराधिक धमकी) के तहत चार्जशीट दाखिल की गई। चार्जशीट में यह भी नोट किया गया कि शिकायतकर्ता ने न्यायिक बयान (judicial statement) देने से इनकार कर दिया था।
ट्रायल कोर्ट ने 29 अगस्त 2023 को आरोपी की डिस्चार्ज अर्जी खारिज कर दी थी। इसके बाद, कलकत्ता हाईकोर्ट ने भी 30 जनवरी 2024 को ट्रायल कोर्ट के आदेश के खिलाफ दायर पुनरीक्षण याचिका (revision petition) को खारिज कर दिया, जिसके बाद मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा।
पक्षों की दलीलें
अपीलकर्ता के वकील ने तर्क दिया कि संपत्ति को लेकर दो भाइयों, श्री बिमलेंदु बिस्वास (अपीलकर्ता के पिता) और श्री अमलेन्दु बिस्वास के बीच दीवानी विवाद (civil dispute) चल रहा था। यह बताया गया कि एक सिविल जज ने 29 नवंबर 2018 को निषेधाज्ञा (injunction) आदेश पारित किया था, जिसमें दोनों पक्षों को संयुक्त कब्जा बनाए रखने और किसी भी तीसरे पक्ष का हित (third-party interest) न बनाने का निर्देश दिया गया था।
वकील ने दावा किया कि एफआईआर श्री अमलेन्दु बिस्वास के इशारे पर दर्ज की गई थी ताकि निषेधाज्ञा का उल्लंघन करके अपीलकर्ता और उनके पिता को बेदखल किया जा सके। यह भी तर्क दिया गया कि आरोपों से धारा 354C का अपराध नहीं बनता क्योंकि रिकॉर्ड पर कोई आपत्तिजनक तस्वीरें नहीं हैं और शिकायतकर्ता किरायेदार नहीं बल्कि एक आदतन अपराधी है।
इसके विपरीत, राज्य (Respondent-State) के वकील ने तर्क दिया कि शिकायतकर्ता एक “संभावित किरायेदार” (prospective tenant) थी जो ग्राउंड फ्लोर देखने आई थी। राज्य ने कहा कि आईपीसी की धारा 341 और 506 के तहत प्रथम दृष्टया (prima facie) मामला बनता है और आरोपों की सच्चाई ट्रायल का विषय है।
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण
सुप्रीम कोर्ट ने डिस्चार्ज से संबंधित कानूनी सिद्धांतों की जांच की और राम प्रकाश चड्ढा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2024) तथा यूनियन ऑफ इंडिया बनाम प्रफुल्ल कुमार सामल (1979) जैसे अपने पिछले फैसलों का हवाला दिया। कोर्ट ने दोहराया कि हालांकि डिस्चार्ज के चरण में “प्रबल संदेह” पर्याप्त होता है, लेकिन यह संदेह ऐसी सामग्री पर आधारित होना चाहिए जिसे ट्रायल के दौरान साक्ष्य में बदला जा सके।
धारा 354C आईपीसी (Voyeurism) पर: पीठ ने पाया कि एफआईआर और चार्जशीट में धारा 354C के तहत कोई अपराध नहीं बनता है। कोर्ट ने नोट किया कि यह प्रावधान तब लागू होता है जब कोई पुरुष किसी महिला को “निजी कृत्य” (private act) में संलग्न होते हुए देखता है या उसकी तस्वीर लेता है। कोर्ट ने कहा:
“रिकॉर्ड पर मौजूद एफआईआर और चार्जशीट के अवलोकन पर, यह कोर्ट यह निष्कर्ष निकालने में असमर्थ है कि धारा 354C का अपराध बनता है, क्योंकि एफआईआर और चार्जशीट में ऐसा कोई आरोप नहीं है कि शिकायतकर्ता को तब देखा गया या कैद किया गया जब वह किसी ‘निजी कृत्य’ में संलग्न थी।”
धारा 506 आईपीसी (आपराधिक धमकी) पर: आपराधिक धमकी के आरोप के संबंध में, कोर्ट ने कहा कि एफआईआर इस बारे में चुप है कि शिकायतकर्ता को किस तरह की धमकी दी गई या क्या शब्द कहे गए। कोर्ट ने कहा:
“सिवाय इस आरोप के कि अपीलकर्ता-आरोपी ने तस्वीरें खींचकर शिकायतकर्ता को डराया, एफआईआर और चार्जशीट पूरी तरह से इस बारे में चुप हैं कि शिकायतकर्ता को उसके शरीर या संपत्ति को नुकसान पहुंचाने की धमकी कैसे दी गई।”
धारा 341 आईपीसी (गलत तरीके से रोकना) पर: कोर्ट ने धारा 341 का विश्लेषण करते हुए कहा कि इसमें किसी व्यक्ति को उस दिशा में आगे बढ़ने से रोकना शामिल है जिसमें उसे “आगे बढ़ने का अधिकार” है। कोर्ट ने पाया कि सह-मालिक के बयान के अनुसार शिकायतकर्ता केवल एक “संभावित किरायेदार” थी, इसलिए उसे संपत्ति में प्रवेश करने का कोई अधिकार नहीं था, खासकर तब जब तीसरे पक्ष के हित बनाने के खिलाफ निषेधाज्ञा आदेश (injunction order) लागू था।
“इसलिए, रिकॉर्ड पर मौजूद सामग्री यह इंगित करती है कि कथित अपराध की तारीख पर, शिकायतकर्ता को संपत्ति में प्रवेश करने का कोई अधिकार नहीं था। वास्तव में, शिकायतकर्ता को किरायेदार के रूप में संपत्ति में लाना ट्रायल कोर्ट द्वारा पारित निषेधाज्ञा का उल्लंघन होता।”
पीठ ने माना कि अपीलकर्ता केवल निषेधाज्ञा आदेश के तहत अपने कानूनी अधिकार को लागू कर रहा था।
तुच्छ मुकदमों (Frivolous Prosecutions) पर टिप्पणी
सुप्रीम कोर्ट ने उन मामलों में चार्जशीट दाखिल करने की प्रवृत्ति पर गंभीर टिप्पणी की जहां कोई प्रबल संदेह नहीं होता।
“उन मामलों में चार्जशीट दाखिल करने की प्रवृत्ति जहां कोई प्रबल संदेह नहीं बनता, न्यायिक प्रणाली को बाधित (clogs) करती है। यह जजों, अदालत के कर्मचारियों और अभियोजकों को उन मुकदमों पर समय बिताने के लिए मजबूर करता है जिनका बरी (acquittal) होना तय है। यह सीमित न्यायिक संसाधनों को मजबूत और अधिक गंभीर मामलों को संभालने से हटाता है, जिससे बड़े पैमाने पर मामले लंबित होते हैं।”
कोर्ट ने आगे कहा:
“निस्संदेह, आरोप तय करने (charge framing) के चरण में इस बात का विश्लेषण नहीं हो सकता कि मामला दोषसिद्धि या बरी होने में समाप्त होगा, लेकिन मौलिक सिद्धांत यह है कि राज्य को नागरिकों पर दोषसिद्धि की उचित संभावना के बिना मुकदमा नहीं चलाना चाहिए, क्योंकि यह निष्पक्ष प्रक्रिया के अधिकार से समझौता करता है।”
निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने आपराधिक अपील संख्या 5146/2025 को स्वीकार कर लिया। फैसले में कहा गया:
“मौजूदा अपील स्वीकार की जाती है और विवादित निर्णय व आदेश को रद्द किया जाता है। साथ ही अपीलकर्ता-आरोपी को जी.आर. केस नंबर 223 ऑफ 2020 (बिधाननगर उत्तर पुलिस स्टेशन एफआईआर नंबर 50 ऑफ 2020 से उत्पन्न) से बरी (discharged) किया जाता है।”
केस विवरण:
- केस शीर्षक: तुहिन कुमार बिस्वास @ बुम्बा बनाम पश्चिम बंगाल राज्य
- केस संख्या: क्रिमिनल अपील नंबर 5146 ऑफ 2025 (एस.एल.पी. (क्रिमिनल) नंबर 3002/2024 से उत्पन्न)
- कोरम: जस्टिस नोंगमीकापम कोटेश्वर सिंह और जस्टिस मनमोहन

