भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने आपराधिक अपील संख्या 5560-5561/2024 में एक ऐतिहासिक फैसले में पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के उस आदेश को खारिज कर दिया है, जिसमें दशकों पुराने हत्या के मामले में तीन अपीलकर्ताओं को दोषी ठहराया गया था और आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी। सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि हरियाणा राज्य को न्यायिक त्रुटि और लोक अभियोजक की विफलताओं के कारण गलत तरीके से दोषी ठहराए गए तीन अपीलकर्ताओं में से प्रत्येक को 5,00,000 रुपए का मुआवजा देना चाहिए।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला महाबीर और दो अन्य सह-आरोपियों द्वारा दायर अपील से उत्पन्न हुआ है, जिसमें 27 अगस्त, 2024 के हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती दी गई थी, जिसमें उन्हें बरी किए जाने के फैसले को पलट दिया गया था और उन्हें भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 302 के तहत दोषी ठहराया गया था। अपीलकर्ताओं को ट्रायल कोर्ट ने बरी कर दिया था, लेकिन बाद में मूल शिकायतकर्ता द्वारा 2006 में दायर एक पुनरीक्षण याचिका में उन्हें दोषी ठहराया गया।
सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि हाई कोर्ट का फैसला अभियुक्त के निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार के मौलिक उल्लंघन पर आधारित था। पुनरीक्षण याचिका पर अभियुक्त को उचित नोटिस दिए बिना, उनके कानूनी प्रतिनिधित्व की अनुपस्थिति में और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का अनुपालन किए बिना निर्णय लिया गया।
मुख्य कानूनी मुद्दे
1. प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन:
– अपीलकर्ताओं को पुनरीक्षण कार्यवाही में दोषी ठहराया गया, जहां उन्हें सुनवाई का अवसर नहीं दिया गया।
– सरकारी अभियोजक ने निष्पक्ष कार्यवाही सुनिश्चित करने में अदालत की सहायता करने के बजाय, अभियुक्त के लिए मृत्युदंड की सक्रिय रूप से मांग की।
2. पुनरीक्षण क्षेत्राधिकार का अनियमित प्रयोग:
– हाई कोर्ट ने दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 401 के तहत अपने क्षेत्राधिकार का उल्लंघन किया, जो स्पष्ट रूप से पुनरीक्षण कार्यवाही में दोषसिद्धि को दोषसिद्धि में बदलने पर रोक लगाता है।
3. गवाहों और साक्ष्यों को अनुचित तरीके से संभालना:
– सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हाईकोर्ट ने ट्रायल कोर्ट के समक्ष गवाह की मौखिक गवाही के बजाय सीआरपीसी की धारा 161 के तहत दर्ज पुलिस के बयान पर भरोसा किया।
– सरकारी वकील ने विरोधी गवाहों से उचित तरीके से जिरह करने के अपने कर्तव्य में विफल रहा।
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियां
न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर. महादेवन की दो न्यायाधीशों की पीठ ने सरकारी वकीलों की भूमिका और न्यायिक जिम्मेदारी के बारे में महत्वपूर्ण टिप्पणियां कीं:
– न्यायिक त्रुटियों पर:
“न्यायाधीश भी इंसान हैं और कई बार वे गलतियाँ करते हैं। काम के अत्यधिक दबाव के कारण कई बार ऐसी गलतियाँ हो सकती हैं। साथ ही, बचाव पक्ष के वकील के साथ-साथ सरकारी वकील का भी यह कर्तव्य है कि अगर कोर्ट कोई गलती कर रहा है तो उसे सुधारें।”
– सरकारी अभियोजकों की जिम्मेदारियों पर:
“किसी सरकारी अभियोजक से यह अपेक्षा नहीं की जाती कि वह मामले के वास्तविक तथ्यों की परवाह किए बिना किसी भी तरह से अभियुक्त को दोषी ठहराने के लिए मामले तक पहुँचने की इच्छा दिखाए।”
– राज्य की जवाबदेही पर:
“राज्य सरकार से यहाँ तीनों अपीलकर्ताओं को मुआवज़ा देने के लिए कहा जाना चाहिए। लोगों की इस बात में महत्वपूर्ण रुचि है कि सरकारी अभियोजक की नियुक्ति किस तरह और किस प्रक्रिया से की जाती है और वह अदालतों को किस तरह सहायता प्रदान करता है।”
निर्णय और अंतिम आदेश
1. सर्वोच्च न्यायालय ने हाईकोर्ट के निर्णय को रद्द कर दिया और अपीलकर्ताओं को दोषमुक्त कर दिया।
2. राज्य सरकार को निर्देश दिया गया कि वह चार सप्ताह के भीतर तीनों अपीलकर्ताओं को ₹5,00,000 का मुआवज़ा दे।
3. न्यायालय ने चेतावनी दी कि मुआवज़ा आदेश का पालन न करने पर जिम्मेदार राज्य अधिकारियों के खिलाफ़ आगे की कार्रवाई की जाएगी।
4. न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि न्यायिक जवाबदेही और अभियोजन पक्ष की निष्पक्षता आपराधिक न्याय प्रणाली की अखंडता को बनाए रखने के लिए मौलिक हैं।