सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के उन निर्णयों को रद्द कर दिया है, जिनके तहत कई कर्मचारियों को ऑपरेटर-सह-डाटा एंट्री असिस्टेंट/रूटीन ग्रेड क्लर्क के पद पर नियमित (Regularize) करने से इनकार कर दिया गया था। जस्टिस जे.के. माहेश्वरी और जस्टिस विजय बिश्नोई की पीठ ने कहा कि हाईकोर्ट को एक “आदर्श नियोक्ता” (Model Employer) के मानकों का पालन करना चाहिए, लेकिन इस मामले में उसने अपीलकर्ताओं के साथ मनमाना व्यवहार किया है।
कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अपनी अंतर्निहित शक्तियों का प्रयोग करते हुए अपीलकर्ताओं को सेवा में बहाल करने और नियमित करने का निर्देश दिया है।
कानूनी मुद्दा और परिणाम
इस मामले में मुख्य कानूनी सवाल यह था कि क्या इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश (Chief Justice) द्वारा अपनी विशेष शक्तियों के तहत नियुक्त किए गए क्लास-III कर्मचारियों के नियमितीकरण में भेदभाव किया गया था। अपीलकर्ताओं का कहना था कि समान स्थिति वाले कई अन्य कर्मचारियों को नियमित कर दिया गया, लेकिन उन्हें बिना किसी उचित कारण के इस लाभ से वंचित रखा गया।
सुप्रीम कोर्ट ने अपीलों को स्वीकार करते हुए कहा कि हाईकोर्ट के प्रशासनिक पक्ष द्वारा अपीलकर्ताओं और अन्य कर्मचारियों के बीच किया गया भेद “मनमाना, अनुचित और सतही” था और यह संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है।
मामले की पृष्ठभूमि
अपीलकर्ताओं को वर्ष 2004 और 2005 के बीच तदर्थ (Ad-hoc) आधार पर ऑपरेटर-सह-डाटा एंट्री असिस्टेंट/रूटीन ग्रेड क्लर्क के पदों पर नियुक्त किया गया था। ये नियुक्तियाँ इलाहाबाद हाईकोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश द्वारा इलाहाबाद हाईकोर्ट ऑफिसर्स एंड स्टाफ (कंडीशंस ऑफ सर्विस एंड कंडक्ट) रूल्स, 1976 के नियम 8(a)(i) के साथ पठित नियम 41 और 45 के तहत मिली शक्तियों का प्रयोग करते हुए की गई थीं।
विवाद की शुरुआत हाईकोर्ट की एक खंडपीठ (Division Bench) के 20 सितंबर, 2011 के फैसले से हुई, जिसने यह माना था कि मुख्य न्यायाधीश की अवशिष्ट शक्तियों (Residuary Powers) के तहत की गई नियुक्तियाँ अवैध नहीं थीं। कोर्ट ने रजिस्ट्रार जनरल को इन कर्मचारियों के पुष्टिकरण/नियमितीकरण के लिए कदम उठाने का निर्देश दिया था। इसके बाद, ऐसे नियुक्त लोगों के मामलों की जांच के लिए दो जजों की एक समिति गठित की गई थी।
31 मई, 2012 की अपनी रिपोर्ट में, समिति ने कुछ कर्मचारियों (श्रेणी ए और श्रेणी बी) के नियमितीकरण की सिफारिश की, लेकिन अपीलकर्ताओं (श्रेणी सी) के दावों को खारिज कर दिया। समिति ने तर्क दिया कि अपीलकर्ताओं के नियुक्ति पत्रों में “तदर्थ” (Ad-hoc) शब्द लिखा था और चूंकि उनकी नियुक्ति यूपी तदर्थ नियुक्ति नियमितीकरण नियमावली, 1979 की कट-ऑफ तारीख के बाद हुई थी, इसलिए वे इसके पात्र नहीं थे। इसके परिणामस्वरूप, 2015 में अपीलकर्ताओं की सेवाएं समाप्त कर दी गईं।
अपीलकर्ताओं ने इस अस्वीकृति को हाईकोर्ट में चुनौती दी। एकल न्यायाधीश ने उनकी याचिकाओं को खारिज कर दिया और खंडपीठ ने भी 14 और 30 अक्टूबर, 2015 के अपने फैसलों में इस बर्खास्तगी को बरकरार रखा, जिसके बाद यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा।
पक्षों की दलीलें
अपीलकर्ताओं की ओर से: वरिष्ठ अधिवक्ता पी.एस. पटवालिया ने तर्क दिया कि अपीलकर्ताओं की नियुक्तियाँ सीधे 1976 के नियमों के नियम 8(a)(i) से जुड़ी हैं, जो मुख्य न्यायाधीश को किसी भी तरीके से भर्ती करने की अनुमति देता है। उन्होंने कहा कि अपीलकर्ताओं को उसी चैनल और प्रक्रिया के माध्यम से नियुक्त किया गया था जिससे नियमित किए गए अन्य कर्मचारी आए थे। उन्होंने दलील दी कि समान शर्तों पर अपीलकर्ताओं पर विचार न करना “शत्रुतापूर्ण भेदभाव” (Hostile Discrimination) का स्पष्ट उदाहरण है।
प्रतिवादी (हाईकोर्ट) की ओर से: अधिवक्ता प्रीतिका द्विवेदी ने अपीलों का विरोध करते हुए कहा कि प्रतिस्पर्धी चैनल के बाहर की गई नियुक्तियों को नियमित नहीं किया जाना चाहिए। उन्होंने तर्क दिया कि हाईकोर्ट के पास अपनी स्टाफिंग पैटर्न तय करने का विवेकाधिकार है और नियमितीकरण कोई निहित अधिकार नहीं है। यह भी कहा गया कि खंडपीठ ने सही माना था कि “तदर्थ नियुक्तियाँ नियमितीकरण का हक नहीं देती हैं।”
कोर्ट का विश्लेषण
सुप्रीम कोर्ट ने समिति की रिपोर्ट का बारीकी से विश्लेषण किया जिसने कर्मचारियों को तीन श्रेणियों में बांटा था। कोर्ट ने नोट किया:
- श्रेणी ए (Category A): ये तदर्थ कर्मचारी थे लेकिन उनके पत्रों में परीक्षा की शर्त थी। समिति ने उनकी सिफारिश की क्योंकि परीक्षा की शर्त अब “प्रभावी नहीं” रही थी।
- श्रेणी बी (Category B): इनकी सिफारिश इसलिए की गई क्योंकि उनके पत्रों में स्पष्ट रूप से “तदर्थ” नहीं लिखा था।
- श्रेणी सी (अपीलकर्ता): इन्हें इसलिए खारिज कर दिया गया क्योंकि उनके पत्रों में “तदर्थ” लिखा था और उनके नियमितीकरण के लिए कोई विशिष्ट हाईकोर्ट नियम नहीं था।
पीठ ने इस वर्गीकरण को “मनमाना, अनुचित और सतही” करार दिया। कोर्ट ने कहा:
“तीनों श्रेणियों के कर्मचारियों यानी श्रेणी ए, श्रेणी बी और श्रेणी सी (अपीलकर्ता) को भर्ती के एक ही चैनल के माध्यम से नियुक्त किया गया था, अर्थात् नियमित भर्ती प्रक्रिया का पालन किए बिना 1976 के नियमों के नियम 8(a)(i), 41 और 45 के तहत मुख्य न्यायाधीश में निहित शक्तियों का प्रयोग करते हुए।”
कोर्ट ने कहा कि जब कार्य की प्रकृति और नियुक्ति की शक्ति का स्रोत समान हो, तो केवल नियुक्ति पत्र में लिखी शर्तों के आधार पर भेदभाव करना समानता के सिद्धांत का उल्लंघन है। पीठ ने टिप्पणी की:
“हाईकोर्ट, एक संवैधानिक न्यायालय होने के नाते, जिसे समानता और निष्पक्षता को बनाए रखने का जिम्मा सौंपा गया है, से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपने स्वयं के प्रशासनिक कामकाज में भी ऐसे सिद्धांतों को शामिल करे, और उसे एक आदर्श नियोक्ता के मानकों का उदाहरण पेश करना चाहिए।”
कोर्ट ने प्रतिवादी के इस तर्क को भी खारिज कर दिया कि यह पद एक “मृत संवर्ग” (Dead Cadre) है जिसका विलय ‘सहायक समीक्षा अधिकारी’ या ‘कंप्यूटर सहायक’ में हो गया है, यह देखते हुए कि समान स्थिति वाले अन्य व्यक्तियों को इस विलय के बावजूद नियमितीकरण दिया गया था।
निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के आक्षेपित निर्णयों को रद्द कर दिया। अनुच्छेद 142 के तहत अपनी शक्तियों का प्रयोग करते हुए, कोर्ट ने निम्नलिखित निर्देश जारी किए:
- बहाली (Reinstatement): अपीलकर्ताओं को उन पदों पर बहाल किया जाएगा जिन पर वे सेवा समाप्ति के समय कार्यरत थे।
- नियमितीकरण (Regularization): प्रतिवादी को निर्देश दिया गया है कि वह अपीलकर्ताओं की सेवा को “उनकी नियुक्ति की संबंधित तारीखों से एक वर्ष बाद” नियमित करे।
- परिणामी लाभ: अपीलकर्ता वरिष्ठता, पदोन्नति, वेतन निर्धारण, वेतन वृद्धि और सेवानिवृत्ति लाभों के हकदार होंगे। हालांकि, वे उस अवधि के वेतन के हकदार नहीं होंगे जब उन्होंने काम नहीं किया।
- अनुपालन: इन निर्देशों का पालन 8 सप्ताह के भीतर किया जाना चाहिए।
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यह निर्णय इन अपीलों के विशिष्ट तथ्यों तक सीमित है और इसे “मिसाल (Precedent) के रूप में नहीं माना जाएगा।”
केस विवरण
- केस टाइटल: रत्नांक मिश्रा और अन्य बनाम इलाहाबाद उच्च न्यायालय (रजिस्ट्रार जनरल के माध्यम से) एवं अन्य
- केस नंबर: सिविल अपील संख्या 428/2022 (सिविल अपील संख्या 429, 430 और 431/2022 के साथ)
- साइटेशन: 2025 INSC 1477
- कोरम: जस्टिस जे.के. माहेश्वरी और जस्टिस विजय बिश्नोई
- अपीलकर्ताओं के वकील: वरिष्ठ अधिवक्ता श्री पी.एस. पटवालिया
- प्रतिवादी के वकील: अधिवक्ता सुश्री प्रीतिका द्विवेदी

