सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को टिप्पणी की कि उच्च न्यायालयों को अपने न्यायिक अधिकारियों की व्यक्तिगत और पारिवारिक समस्याओं के प्रति “अभिभावक” की तरह व्यवहार करना चाहिए। शीर्ष अदालत ने झारखंड हाईकोर्ट को निर्देश दिया कि वह एकल अभिभावक महिला न्यायिक अधिकारी की पोस्टिंग पर पुनर्विचार करे, क्योंकि उनके बेटे की कक्षा 12 की बोर्ड परीक्षा निकट है।
मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति बी.आर. गवई और न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन की पीठ अतिरिक्त जिला जज (एडीजे) की याचिका पर सुनवाई कर रही थी। याचिकाकर्ता, जो अनुसूचित जाति वर्ग से हैं, ने छह माह की चाइल्ड केयर लीव (बाल देखभाल अवकाश) की मांग को ठुकराए जाने को चुनौती दी थी। उन्हें बाद में दुमका स्थानांतरित कर दिया गया था, जिसका उन्होंने यह कहते हुए विरोध किया कि वहां अच्छे सीबीएसई स्कूल उपलब्ध नहीं हैं।
पीठ ने कहा, “हाईकोर्ट को अपने न्यायिक अधिकारियों की समस्याओं के प्रति संवेदनशील रहना चाहिए। उन्हें अभिभावक की तरह व्यवहार करना चाहिए और इस तरह के मामलों को ‘अहम’ का विषय नहीं बनाना चाहिए।”

एडीजे ने जून से दिसंबर 2025 तक छह माह का अवकाश मांगा था, जो सेवा अवधि में 730 दिन की अनुमति वाले नियमों के तहत वैध था। लेकिन उन्हें केवल तीन माह की छुट्टी दी गई। इसके बाद उन्होंने हाईकोर्ट से अनुरोध किया कि उन्हें हजारीबाग में ही बनाए रखा जाए, या फिर रांची अथवा बोकारो स्थानांतरित कर दिया जाए, क्योंकि यह उनके बेटे के लिए महत्वपूर्ण शैक्षणिक वर्ष है।
सुप्रीम कोर्ट ने राहत देते हुए आदेश दिया कि अधिकारी को या तो हजारीबाग में ही रहने दिया जाए या फिर बोकारो स्थानांतरित किया जाए, कम से कम मार्च–अप्रैल 2026 तक, जब तक बोर्ड परीक्षाएं पूरी नहीं हो जातीं।
मुख्य न्यायाधीश ने निर्देश दिया, “उन्हें या तो बोकारो भेज दीजिए या फिर हजारीबाग में ही रहने दीजिए, कम से कम मार्च/अप्रैल 2026 तक … जब तक परीक्षाएं समाप्त नहीं हो जातीं।”
झारखंड हाईकोर्ट को दो सप्ताह के भीतर इस आदेश का पालन करना होगा। मई में ही सुप्रीम कोर्ट ने इस याचिका पर झारखंड सरकार और हाईकोर्ट रजिस्ट्री से जवाब मांगा था। अब मामले की निगरानी की जाएगी ताकि आदेश का अनुपालन सुनिश्चित हो सके।